Thursday, September 12, 2013

आज फिर राजस्थानी पर

राजस्थानी और उसकी सरकार पोषित अकादमी फिर चर्चा में है, हाल की चर्चा का कारण बनी वह अनुवाद पुस्तक है जिसे अकादमी ने अनुवाद पुरस्कार से नवाजा है। आरोप है कि इस पुस्तक की कविताएं अश्लील हैं। इससे पूर्व भी एक विवाद आर्थिक प्रकाशन सहायता से वंचित पाण्डुलिपियों का चल रहा है। वंचित लेखकों के अपने तर्क हैं, अकादमी के अपने तर्क। ये दोनों अपने-अपने तईं सही भी हो सकते हैं और गलत भी।
विनायक ने एक माह पूर्व अपने तीन सम्पादकीय के माध्यम से राजस्थानी और राजस्थानी की इस अकादमी से सम्बन्धित कई प्रश् खड़े किए थे--आश्चर्य है की उन पर लिखित प्रतिक्रिया एक भी नहीं आई। प्रतिक्रिया ना आने के कई कारण हो सकते हैं--उन मुद्दों को गैर जरूरी समझा गया हो, यह भी हो सकता है कि अचानक अपने को आईने के सामने पाकर सांप सूंघ गया हो। मौन स्वीकृति भी एक कारण हो सकता है जिसे व्यक्तिगत बातचीत में कइयों ने स्वीकार भी किया। उम्मीद तो यह थी कि विनायक के उठाये मुद्दों पर कोई बहस शुरू होती जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से हो सकती थी। सब बातों को झूठ साबित कर धज्जियां उड़ाई जाती, यदि यह मान लिया जाता कि असलियत लिखी गई है तो राजस्थानी के हित में चिन्तन-मनन होता, कार्य योजना बनती और उस पर काम शुरू होता।
ऐसी गुंजाइश तो दूर की बात उल्टे आपस में ही छिछालेदारी शुरू हो गई। यहां तक कि विनायक ने जो संगीन आरोप लगाए जैसे राजस्थानी के नाम पर अधिकांश संगठन गिरोह के रूप में काम करते देखे जा सकते हैं और यह भी कि उत्तर-पश्चिमी राजस्थान के लेखक इस भाषा, साहित्य और संस्कृति अकादमी को बपौती के रूप में बरतने लगे हैं। ऐसी बातों काखण्डन-मण्डनकरना तो दूर की बात बल्कि इस अतिक्रमण की पकड़ को और मजबूत करने में जुट गये।
कोई रचना श्लील है या अश्लील इसे तय कर पाना बहुत कुछ गृहीता के मन पर भी निर्भर करता है और सचमुच कुछ अश्लील है तो वह आयी आपके बीच से ही, आपका समाज और आपकी बिरादरी में यह गुंजाइश कैसे रह गई। दूसरे तरीके से विचार करें तो राजस्थानी के कुछ वरिष्ठ लेखकों को तथाकथित अश्लील लिखने की छूट क्या इसलिए दी कि वे पुरुष हैं। यहां यह तर्क लाया जा सकता है कि वहां सृजनात्मक जरूरत थी तो ऐसी सृजनात्मक जरूरत एक स्त्री महसूस क्यों नहीं कर सकती। क्या यह पुरुषवादी मानसिकता नहीं है। अपने स्वार्थों के अनुकूल तर्क घड़ेंगे तो उनका वलय लगातार संकीर्ण होता चला जायेगा। राजस्थानी के ये गिरोह लगातार इसी ओर अग्रसर हैं कि जो राजस्थानी उत्तर-पश्चिमी राजस्थान की है वही राजस्थानी है, फिर जो बीकानेर सम्भाग की है वही राजस्थानी और फिर जो बीकानेर शहर के लेखक लिखते हैं और फिर उनमें भी जो पुरुष लेखक लिखते हैं वही राजस्थानी और उन में भी जो दबंग लिखते हैं और जैसा भी लिखते हैं वही राजस्थानी है।
शायद ऐसी मानसिकता के चलते राजस्थानी भारतीय साहित्य में व्यापक स्थान नहीं बना पायी अब तक। और यह भी कि राजस्थानी के ये तथाकथित पहरूवे असल आधार के अभाव की पूर्ति अधिकारिक मान्यता से करना चाहते हैं, अन्यथा आत्मावलोकन करके कार्ययोजना बनवाते और अकादमी के माध्यम से खर्च होने वाले सार्वजनिक धन को राजस्थानी के सकारात्मक और आधारभूत कामों में लगवाते? तिकड़मों से मिलने वाले साहित्यिक सम्मेलनों के आयोजनों से और तिकड़मी पाण्डुलिपि सहयोग से छपी पुस्तकों से राजस्थानी की प्रतिष्ठा कितनी बनी है। पाण्डुलिपियां तैयार ही इसी मंशा से होती है कि राजस्थानी की इस पोल में नाम-दाम की आगत हो जायेगी। राजस्थानी कोअतिथि लेखकों’, ‘शरणार्थी लेखकोंऔरधिंगाणियां लेखकोंसे मुक्ति की जरूरत है। बिना इस मुक्ति के मान्यता ले भी लेंगे तो क्या असल प्रतिष्ठा भी हासिल हो जायेगी?


12 सितम्बर, 2013

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