Wednesday, September 11, 2013

राजस्थानी और उसकी अकादमी कुछ अपनी, कुछ सुनी-सुनाई—दो

कल उल्लेखित लेखकों की श्रेणीबद्धता कमोबेश सभी भाषाओं में मिलती होगी लेकिन राजस्थानी पर नजर डालें तो इन श्रेणियों से बाहर असल लेखक कम ही दिखते हैं, नीर-क्षीर निर्णय का अधिकार तो किसी भाषा के पाठकों को होता हैं, पर राजस्थानी के पाठक दिखते नहीं हैं। राजस्थानी के पाठक राजस्थानी के लेखक भी कितने हैं, सर्वे का यह रोचक विषय हो सकता है।
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के गठन में विद्वजनों की दृष्टि जिस तरह काम कर रही थी वह ना केवल व्यापक थी बल्कि तय लक्ष्य को हासिल करने की भी रही होगी। अन्यथा प्रदेश की शेष साहित्य अकादमियां केवल साहित्य अकादमियां ही हैं। जबकि राजस्थानी की अकादमी भाषा, साहित्य और संस्कृति इन तीनों क्षेत्रों के उन्नयन के लिए बनी। इसे उनकी दूर दृष्टि ही कहा जा सकता कि नाम में ही उन्होंने भाषा को पहले रखा। उन्होंने यही सोच कर ऐसा किया होगा कि आधुनिक राजस्थानी साहित्य सृजन के लिए भाषा का सर्वस्वीकार्य, सर्वमान्य और मोटा मोट व्यावहारिक मानक रूप तो विकसित हो? यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है किविनायकएकरूपता की बात नहीं कर रहा है। साहित्य सृजन ना सही कम से कम गैर साहित्यक सृजन और अनुवादों के लिए क्रियापदों और सम्बन्धकारकों का मानकीकरण राजस्थानी के व्यापक पाठक समाज का विकास कर सकता था।माणकजैसी पत्रिका का हस्र सामने है, यह पत्रिका अब शेष बचे उन प्रवासी राजस्थानी पाठकों की पत्रिका भर रह गयी है, जो लगातार कम होते जा रहे हैं, प्रवासी राजस्थानियों की अगली पीढ़ियों का सरोकार इस भाषा के प्रति नहीं दीखता।
राजस्थानी अकादमी जब से बनी तब से अब तक के कार्यकलापों और बजट खर्च पर नजर दौड़ाएं तो राजस्थानी भाषा और संस्कृति के प्रति अपेक्षा साफ देखी जा सकेगी। स्थापना से अब तक आधे से ज्यादा खर्च सिर्फ साहित्य पर किया गया होगा, भाषा को लेकर कोई गम्भीर काम तो छोड़ दें पहल भी नहीं देखी गई। भाषा का कोई सर्व स्वीकार्य व्याकरण नहीं, कल्पना करें पिता-पुत्र बद्रीप्रसाद-भूपतिराम साकरिया और सीताराम लालस जैसे कर्मठ भाषा-विद्वान ना होते तो आधुनिक राजस्थानी साहित्य में बिना अर्थ जाने शब्दों के अराजक प्रयोग का कोई छेड़ा होता क्या?
अकादमी ने अपनी स्थापना से अब तक या तो अपने चहेते साहित्यकारों को या घोंस जमा कर अपना काम निकलवा लेने वाले दबंग साहित्यकारों को और व्यक्तित्वहीन साहित्यकारों के गिड़गिड़ाने पर पोखने के अलावा उल्लेखनीय क्या किया है? हिन्दी जैसी लगभग जीरो से शुरू भाषा ने इन सवा सौ वर्षों में जो मुकाम हासिल किया वह एक उदाहरण है। हिन्दी को तो शुरू में कोई खास राज्याश्रय भी नहीं था, लेकिन भाषाविज्ञों की पूर्ण समर्पित पीढ़ियों के लगातार योगदान ने हिन्दी को गरिमा दी। भाषाविज्ञों की इस संगत के चलते ही हिन्दी साहित्यकार कुछ करने में सक्षम हो सके। शायद यह ना राजस्थानी के लेखक समझ रहे हैं और ना ही अकादमी के नित नये आने वाले कर्णधार। जिन्हें अध्यक्ष बनाया जाता है वह या तो जैसे-तैसे अपनी पारी पूरी करने की जुगत में लगे रहते हैं या फिर अपने चहेते साहित्यकारों को उपकृत करने में। साहित्यकार सम्मेलनों का आयोजन इसका सबसे आसान तरीका है। राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति की इस अकादमी में अब तक अधिकांश अध्यक्ष साहित्यकार नियुक्त हुए है, अधिकांश कार्यकारिणीयों के अधिकांश सदस्य साहित्यकार ही रहे हैं और हैं। इन सबके चश्मे साहित्यकारों से आगे कुछ दिखाते ही नहीं इन्हें। कोई क्यों नहीं पूछता है कि भाषा और संस्कृति के नाम पर क्या हो रहा हैं। बिना भाषिक विकास के आपका साहित्य अन्य भाषाओं में क्या पैठ बनायेगा। कहने को कह सकते हैं, राजस्थानी की इतनी कृतियों का इतनी भाषाओं में अनुवाद होकर प्रकाशित करवाया जा चुका है। यह सब किस तरह होता है, किसी से छुपा नहीं है। देखने वाली बात यह भी है कि इसके बावजूद राजस्थानी की अन्य भारतीय भाषाओं में कितनी पैठ है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने तो आठवीं अनुसूची में शामिल ना होते हुए भी राजस्थानी को अपने यहां मान्यता दे दी। पर राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति को उससे कितना लाभ मिला, विचारणीय होना चाहिए। केन्द्रीय अकादमी में भी जो काबिज होते हैं वे अपने को और अपनों को ही योग्य मानते हैं, हो सकता है यह सच भी हो लेकिन प्रश् यहां भी खड़ा है कि भाषा उन्नयन के लिए उन्होंने भी क्या किया। सिवाय साहित्यिक पुस्तकों के अनुवादों के या उन्हें प्रकाशित करवाने के या अपनी या अपने चहेतों की पुस्तकों को प्रकाशित करवा उन्हें पुरस्कृत करवाने के।
(क्रमशः)
9 अगस्त, 2013


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