Saturday, April 6, 2013

संवेदना में आइठांण


आज के अखबारों में जिन घटनाओं ने सुर्खियां पायी है उस पर नजर डालते हैं। बीकानेर में इंजीनियरिंग के दो छात्र क्रिकेट खेलते भिड़ पड़े और एक ने बल्ला मार दिया जिससे दूसरे ने प्राण त्याग दिये; जयपुर के सांगानेर में दो समूहों के झगड़े और आगजनी के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया है; सोलह दिसम्बर के दिल्ली गैंगरेप के एक आरोपी का जेल के ही अन्य कैदियों ने हाथ तोड़ दिया। युद्ध पर उतारू उत्तर कोरिया ने अपनी राजधानी में अन्य देशों को दूतावास खाली कर देने की सलाह दे दी है। शहर, प्रदेश, देश और दुनिया की इन चार खबरों को ही यहां बानगी के रूप में बताया है। शेष खबरें भी अधिकांश संवेदनशीलों को बेचैन करने वाली ही हैं।
शहर, प्रदेश देश में कानून व्यवस्था के लिए सभी जरूरी सरंजाम हैं। बीकानेर के पुलिस महकमे में चौकी प्रभारियों से लेकर महानिरीक्षक स्तर के अधिकारी बैठते हैं। प्रदेश की राजधानी में पुलिस महकमे की आयुक्त प्रणाली लागू हुए अरसा हो गया है, सरकार खुद भी वहां बैठती है। दिल्ली की जिस तिहाड़ जेल में गैंगरेप के आरोपी का हाथ तोड़ा गया उसकी गिनती दुनिया की चाक-चौबंद जेलों में होती है, जेल का मुखिया ही आयुक्त (कमिश्नर) स्तर का होता है। अब दुनिया की बात करें तो विभिन्न देशों में आपसी सामंजस्य बनाये रखने के लिए कहने को तो संयुक्त राष्ट्रसंघ है लेकिन उसकी स्थिति कोई बहुत उल्लेखनीय नहीं है। दबंग और आत्मघाती मानसिकता वाले देश अपनी अनुकूलता के हिसाब से संयुक्त राष्ट्रसंघ की उपेक्षा करते और महत्त्व देते हैं। सोवियत यूनियन के विघटन के बाद अमेरिका की दबंगई लगभग चुनौतीहीन हो गई है, वह अपनी बल पड़ती अनुकूलताओं और चीन जैसे कुछेक देशों के साथ सावधानी बरतते अपनी हांकता, दहाड़ता और पुचकारता रहा है।
कहने को अपने देश में भी ऊपर से नीचे तक कानून और व्यवस्था की लगभग ठीकठाक प्रणाली है। लेकिन इस प्रणाली को विभिन्न सत्तारूपों, यथा-सत्ताधारी दलों, प्रभावी विरोधी दलों, धनाढ्यों, बाहुबलियों और दबंगों ने लगभग पंगु बना दिया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की तरह हमारे देश की कानून और व्यवस्था की प्रणाली यदि पंगु नहीं होती तो कम से कम इस तरह की खबरों से अखबार भरे नहीं होते। अखबारों में इस तरह की  ज्यादा खबरें देख कर हम विचलित भी कम होने लगे हैं। मनीषी डॉ. छगन मोहता के शब्दों में कहें तो हमारी संवेदना मेंआइठांण’ (गट्टे) पड़ गये हैं। जिस तरह शरीर के हिस्सेविशेष पर लगातार घर्षण से बने गट्टों यानी आइठांणों पर सूई चुभोने पर भी पीड़ा नहीं होती है, उसी तरह ऐसी खबरें प्रतिदिन देखने पढ़ने से हमारी संवेदनानुभूति में भी आइठांण या कहें गट्टे पड़ गये और जिन्हें पढ़ कर हम विचलित लगभग नहीं होते हैं। यह स्थिति मनुष्य को चेतन से जड़ की ओर प्रवर्त करने वाली है, जो अच्छा संकेत नहीं है।
अखबार तो अब मिशनरी नहीं रहे। उनसे यह उम्मीद करना कि वह अपने को बदल लें और वे ऐसी खबरें प्रमुखता से लगाएं जो कि सुकून देने वाली हों और उम्मीदें जगाएं। ऐसी अपेक्षाओं का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। मीडिया के मकसद और सोच पूरी तरह बाजार से प्रभावित और संचालित है। मीडिया जिस ढलान पर गुड़कने लगा है उस पर संवेदना जैसे शब्द गतिबाधक (स्पीडब्रेकर) ही मान लिए गये हैं। पत्रकारों को यह भी लगने लगा है कि अच्छी खबरे देने में यह जोखिम तो रहता ही है कि किसी अपात्र को तो कहीं प्रमाण-पत्र दे दिया जाय, जो वहम ही है। क्योंकि पात्रता को जांचने के लिए समय और विवेक के साथ बहुत-सी जानकारियां जरूरी होती हैं।फास्टफूडीपत्रकारिता में तो समय तंग और विवेक का अभाव है तो मीडिया मालिकों में खटाव (धैर्य) का।
6 अप्रैल, 2013

1 comment:

Www.nadeemahmed.blogspot.com said...

sir aapka likha hamesa prabhavit karta h thanks