Thursday, April 4, 2013

बेलगाम तकनीक


संगमरमर के लिए प्रसिद्ध राजस्थान के मकराना कस्बे में कल तनाव हो गया। सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर एक धर्म विशेष के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद यह स्थितियां बनीं। पुलिस का कहना है कि टिप्पणी करने वाले को उन्होंने परसों यानी मंगलवार की रात ही गिरफ्तार कर लिया था। पुलिस का कहना सही है तो समुदाय विशेष के अगुवा लोगों की जिम्मेदारी बनती थी कि वे अपने युवकों को शांत रखते। लेकिन देखा गया है कि ऐसी बदमजगियां एक बार होने दी जाती हैं। तनाव बढ़ाना और सार्वजनिक संपत्तियों को क्षति पहुंचाना यानी अपने अमन चैन को खोना और अपनी ही सम्पत्तियों को खुर्द-बुर्द करना है। सरकार जो भी चल-अचल संपत्ति जुटाती है उसके लिए धन कहीं और से नहीं आता, वह विभिन्न तरीकों, करों द्वारा हमसे ही उगाहा हुआ होता है।
लोकप्रिय और कम लोकप्रिय यह सभी सोशल साइटें लगभग बेलगाम हैं, या कहें अभिव्यक्ति का विस्फोट है। विस्फोट शब्द नकारात्मक है। कोई व्यक्ति कई कारणों के चलते जिस बात को कहने में अन्यथा संकोच करता है, उसे इन साइट्स के माध्यम से अब वह बेधड़क कहने लगा है। इन साइट्स पर लिखे या अपलोड किये गयों में अधिकांश सार्थक नहीं होता। बल्कि बहुत आपत्तिजनक भी होता है। आपत्तिजनक भी इतना कि बीसेक वर्ष पहले तो इसकी कल्पना ही नहीं की गई कि ऐसा कुछ इतने सहज रूप में पढ़ने-देखने को मिल सकेगा। मनोचिकित्सक मानते हैं कि निदान के हिसाब प्रत्येक व्यक्ति मानसिक अस्वस्थ होता है, अन्तर केवल मात्रा का है। अस्वस्थ व्यक्ति यदि दिमाग का ऊल-जुलूल और मन के मैलेपन को किसी तरह निकाल दे तो वह बड़ी राहत महसूस करता है। यह सोशल साइटें अपने उपभोक्ता को ऐसा करने-कहने का पर्याप्त अवसर देती हैं। इसलिए इन सोशल साइटों को हमें मानसिक उपचारों के एक उपाय के रूप में भी देखना-समझना चाहिए। ऐसा समझने लगेंगे तो इन पर कहे पर उग्र होंगे और ही हिंसक।
इन सब को देख कर समाज को सकारात्मक तरीके से विचार करने की जरूरत है और आत्मावलोकन की भी। हमें यह भी विचारना होगा कि हमारे इस सामाजिक ढांचे में किन तरह के परिवर्तनों की जरूरत हैं ताकि व्यक्ति की मानसिक अस्वस्थता की मात्रा कम से कम हो।
ऐसा तो संभव नहीं है कि इन साइट्स पर रोक लगा दी जावे। यदि ऐसा करेंगे तो वह भिन्न नामों-तरीकों से फिर लौट आएंगी। इनका साइटों परिवहन तकनीक करती है और तकनीक के बिना अब गुजारा नहीं है। क्योंकि यह संभव नहीं है किमीठा मीठा गप्प और खारा-खारा थू तकनीक की सुविधाओं में बारीक चलनी संभव नहीं है कि क्या गप्प करें और क्या थू, यह समस्या तकनीक की नहीं, उसका उपयोग करने वालों के विवेक की है। और विवेक किसी व्यक्ति विशेष, किसी समूह विशेष और काल और स्थान विशेष के हितों को अभिव्यक्त करने वाला नहीं होता। विवेक पूरे चर-अचर के हितों को अभिव्यक्त करता है। विवेकहीनता की स्थिति में यह तकनीक अभी तो और क्या-क्या गुल खिलाएगी, इसकी कल्पना मात्र ही सिहरन पैदा करती है।
4 अप्रैल, 2013