Monday, April 22, 2013

फिर फूटा आक्रोश


पांच साल की एक बालिका के साथ दिल्ली में हुए बलात्कार के बाद दिल्ली और देश के कई हिस्सों में फिर उद्वेलन है। पिछले वर्ष 16 दिसम्बर को एक युवती के साथ चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार, यातना के तुरन्त बाद से और इलाज के दौरान उसकी मृत्यु के बाद तक दिल्ली सहित देश के कई शहरों में इस घटना के विरोध में आक्रोश देखा गया जो सभी आरोपियों के गिरफ्तार होने के बाद ही ठण्डा हुआ। तब यह मांग भी जोर-शोर से की गई थी कि बलात्कार के आरोपी की सजा में फांसी का प्रावधान होना चाहिए। तब विनायक ने एक से अधिक सम्पादकीयों के माध्यम से बलात्कार और फांसी पर चर्चा की थी। देशव्यापी इतना कुछ होने बावजूद बलात्कार की घटनाओं में दिल्ली में कमी आई और ही देश के अन्य हिस्सों में। लेकिन उसके बाद बलात्कार पीड़िता किसी बालिका, किशोरी, युवती स्त्री के लिए तब जैसी सहानुभूति देखने में नहीं आई और वैसा आक्रोश भी नहीं उपजा। समाज की संस्थाएं और राजनीतिक पार्टियां मानो बलात्कार की घटनाओं की ही तरह फिर रूटीन में गयीं। पांच साल की बालिका के साथ घटित इस वारदात के बाद भी कोई उद्वेलन नहीं होता यदि पुलिस उसके माता-पिता की शिकायत सहानुभूति से सुन लेती और औपचारिक ही सही एफआइआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज कर लेती। यदि ऐसा होता तो रोजमर्रा की ऐसी घटनाओं की तरह यह घटना भी रूटीन की भेंट चढ़ जाती और यह पता ही नई चलता कि 16 दिसम्बर 2012 की घटना के बाद पुलिस ने एक नया फन्डा अपना लिया कि जहां तक होकुछ देकरही सही एफआइआर दर्ज की जाय और इस तरह अपने इलाके का रिकार्ड दुरुस्त रखें। पुलिस वालों ने उस पीड़ित बालिका के माता-पिता को दो हजार रुपये इसलिए देने की कोशिश की वह इस मामले में चुप रहे और रिपोर्ट भी दर्ज करवाए। पुलिस में रिपोर्ट लिखने को रिश्वत लेने और अपने आकाओं को उसका हिस्सा पहुंचाने की बातें तो अब तक सुनते आए हैं लेकिन रिपोर्ट लिखने को उलटे पुलिस देने भी लगी है, बहुतों ने पहली बार सुना होगा। दिसम्बर की घटना के बाद कई बलात्कार पीड़िताओं और उनके परिजनों में जागरूकता आने से इस तरह की घटनाओं की रिपोर्ट बढ़ना लाजिमी था और कइयों की रिपोर्ट रिश्वत के अलावा के कई दबावों के चलते पुलिस को लिखनी ही होती है। पुलिस ने शायद रास्ता निकाला होगा कि जहां तक हो उलटे रिश्वत देकर ही सही बलात्कार की इन घटनाओं को रिकार्ड में बढ़ने दें।
इस बार का जन आक्रोश तो पहले जैसा है और पहले जितना। लेकिन आक्रोश का टारगेट दिल्ली पुलिस और उसके कमिश्नर हैं। मांग है कि पुलिस कमिश्नर को हटा दिया जाय। हो सकता है सरकार दबाव में ऐसा कर भी दे। लेकिन क्या यह समाधान है। जैसा कि विनायक ने अपने पूर्व सम्पादकीयों में लिखा है कि बलात्कार जैसी घटनाएं कानून-व्यवस्था के साथ सामाजिक समस्या भी है। समाज का मामला है तो इसे समाज को भी देखना होगा कि कोई व्यक्ति इस दरिन्दगी पर उतारू ही क्यों होता है। रही बात कानून व्यवस्था की तो दिसम्बर के बाद कानून की तो सरकार ने समीक्षा करके उसे दुरुस्त सख्त बनाया है। जहां तक उसे चाक चौबन्द लागू करने की तो पुलिस और न्याय प्रणाली को दुरुस्त करने की जरूरत है। विरप्पा मोइली जब कानूनमंत्री थे तो उन्होंने न्याय प्रणाली को चुस्त करने की योजना बनाई थी। शायद उनके हटने के बाद वह ठण्डे बस्ते में चली गई। पुलिस रिफॉर्म (सुधारों) की बात लम्बे समय से चल रही है। राजनेता इस पर इसलिए गम्भीर नहीं हैं कि इससे उनकेराजनीति के धन्धेको चलाने का एक कारगर औजार उनके हाथ से निकल जायेगा। अन्यथा पूरे पुलिस महकमे को चुनाव आयोग की तरह पूर्णतया स्वायत्तः कर दिया जाना चाहिए ताकि राजनीतिज्ञों का सीधा हस्तक्षेप समाप्त हो जाए। पुलिस के लिए देशव्यापी एक ही स्वायत्त इकाई की बजाय राज्यवार अलग-अलग पूर्णतया स्वायत्त महकमें हो तो हो सकता है पुलिस का काम और छवि दोनों सुधरे। यदि ऐसा होगा तो अपराधों में आश्चर्यजनक ढंग से कमी आएगी। क्योंकि पुलिस को पंगु इन राजनेताओं ने ही बनाया है।

22 अप्रैल, 2013

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