कल एक और पटवारीजी धरे गये। प्रशासन शहरों के संग अभियान में कब्जों के और अन्य भूखण्डों के पट्टे धड़ाधड़ बन रहे हैं। पट्टे नगर विकास न्यास और नगर निगम को देने हैं। पट्टा बनाने की कई प्रक्रियाओं में एक पटवारी की रिपोर्ट भी होती है। इसी के एवज में पटवारी ने हजार रुपये लिए थे। वैसे पट्टा बनाने के लिए दिए जाने वाले प्रार्थनापत्र से लेकर पट्टा बनने और फिर उसकी रजिस्ट्री होने तक हर प्रक्रिया की या कहें काम की ‘रेट’ तय है। अगर इससे आप अनभिज्ञ हैं तो हो लिया आपका काम। इस प्रक्रिया को अंजाम देने वाले सभी सरकारी मुलाजिमों की तनख्वाहें तय हैं, छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के हिसाब से प्रत्येक महीने की तय तारीख को बिना हुल्ल-ओ-हुज्जत के यह तनख्वाह मिल जाती है या फिर खाते में जमा हो जाती है। यह तनख्वाहें तो सरकारी नौकरी का हक है शेष जो भी वे लेते हैं वह ‘पुरुषार्थ’ की कमाई है। पिछले बीसेक वर्षों से यह सब बिना संकोच और भय के लिया-दिया जाने लगा है, जो ऐसा नहीं करता उसे बेवकूफ समझा जाता है।
उक्त सब अपने देश में निर्बाधगति से चल रहा है, पर एसीबी की ऐसी कार्यवाहियां शायद इसलिए की जाती है कि गति सीमा बनी रहे जैसे शहरी सड़कों के मोड़ों पर या जहां स्कूल, अस्पताल होते हैं या जिन आबादी क्षेत्रों से हाइवे गुजरता है वहां-वहां जैसे गति अवरोधक थरप दिए जाते हैं वैसे एसीबी यानी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की यह कार्यवाहियां भी होती हैं। दूसरा एक कारण यह भी हो सकता है कि एसीबी जैसा विभाग है तो उसे कुछ तो करके दिखाना ही होता है। नहीं तो विभाग बनाये रखने का जस्टीफिकेशन क्या दिया जायेगा। एक तीसरी बात भी हो सकती है कि यदि यह एसीबी वाले ऐसी कार्यवाहियां नहीं करेंगे तो इन्हें भी केवल तनख्वाह ही हासिल होगी। अन्यथा इनके सरकारी नौकरी के ‘पुरुषार्थ’ की कमाई फिर कहां से आएगी और यह महकमा इस रूप में तो ‘भाग्यशाली’ है ही कि इनके ट्रेप होने का कोई खतरा लगभग नहीं होता है।
लोग कहते हैं पटवारी आए दिन ट्रेप होते हैं। सरकारी नौकरियों में पटवारी हैं भी कुछ ज्यादा और इन ‘बेचारों’ का काम भी ऐसा है कि इन्हें कागजों में कुछ न कुछ इधर-उधर का करना ही होता और न करें तो जिनका काम पड़ता है वे नहीं मानते। अब काम करवाने वाले सब तो एक से होते नहीं हैं। अधिकांश काम भी पटवारियों से गांववालों का पड़ता, यह गांववाले ज्यादा कुछ ‘समझते’ तो हैं नहीं और बदनामी पूरे पटवारी कैडर की करवा देते हैं कि पटवारी रिश्वत लेते ज्यादा ही पकड़े जाते हैं। गांवों में पहले तो यह माना जाता था कि सरकार में सबसे ऊंची पोस्ट ही पटवारी की होती है। क्योंकि पटवारी से ऊपर के किसी भी सरकारी मुलाजिम से ग्रामीणों का काम ही नहीं पड़ता था। शब्दकोशों में पटवारी के दो अर्थ दिए हुए हैं एक पुलिंग और एक स्त्रीलिंग। पुलिंग के अर्थ से सभी पाठक वाकफियत रखते हैं, स्त्रीलिंग में अर्थ है ‘वस्त्र पहनानेवाली दासी’। अब ‘बेचारे’ यह पटवारी जमीनी कागजों को वस्त्र पहनाने का काम ही तो करते हैं, फिर ‘बख्शिश’ देने में हुज्जत क्यों?
18 अप्रैल, 2013
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