Tuesday, January 8, 2013

याचक की मुद्रा में शहर के साहित्यकार


शहर के साहित्यकार कल नगर विकास न्यास के अध्यक्ष हाजी मकसूद के पास पहुंचे, ज्ञापन लेकर। साहित्यकार इससे पहले भी इसी तरह याचक के रूप में जा चुके हैं। तब भूखण्डों के लिए गये थे, अब गये हैं पुरस्कारों की राशि बढ़वाने। न्यास गणतंत्र दिवस के अवसर पर साहित्य और कला क्षेत्र के कुछ  विज्ञों को प्रतिवर्ष सम्मानित करता है। इस अनुकम्पाई कार्यक्रम को शुरू हुए बामुश्किल बारह-पन्द्रह साल हुए होंगे। जब से यह सिलसिला शुरू हुआ लगभग तब से ही प्रतिवर्ष नवंबर-दिसंबर माह से उम्मीदवार साहित्यकारों द्वारा पहले इस बात की सेंधमारी होती है कि इस वर्ष निर्णायक कौन होंगे, कुछ चतुर सुजान साहित्यकार तो निर्णायक भी अपने हिसाब से तय करवा निश्चिंत हो लेते हैं, कुछ वे जो चतुर नहीं हैं पहले न्यास कार्यालय का चक्कर इसलिए लगाते हैं कि पता करें कौन निर्णायक होंगे। कलक्टरी और न्यास के बाबुओं ने इसीलिए इन साहित्यकारों के माजने के टके लगा रखे हैं। निर्णायक का पता लग जाने पर खुद सीधे ही पहुंच जाते हैं अपनी पक्षकारी करने को आश्वासन पर भरोसा नहीं होता है तो फिर पता करते हैं कि फलां निर्णायक की दाबाचींथी किससे करवाई जा सकती है, जिस पर भी सूई रुकी, फिर उसकी खैर नहीं। कुछ निर्णायक तो गिन-गिन कर दिन-घंटा-मिनट निकालते हैं कि पुरस्कारों की कब घोषणा हो और कब लारा छूटे। कुछ ऐसे भी हैं जो निर्णायक के रूप में अपनी इस आभासी हैसियत का सुख कई दिनों तक लेते रहने की लालसा रखते हैं। कुछ निर्णायक ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने अपनी निर्णय की इसलिए ठुकरा दी क्योंकि उसी वर्ष का पुरस्कार उन्हें ही लेना था।
यह तो हुई इन पुरस्कारों की गाथा। अब लौट आएं कल की याचक मुद्रा पर। सबसे पहले तो दाद उस साहित्यकार की दी जानी चाहिए जिसने कईभोले-भालेसाहित्यकारों के साथ-साथ गिने-चुने उनसंजीदासाहित्यकारों की गरिमा के नाम पर अक्ल भी इस मुद्दे के लिए निकाल ली! उन्हें याचक मुद्रा में ला दिया। जैसे यह गरिमा दो-चार हजार रुपये में ऊपर-नीचे होनी है। साहित्यकारों को यदि लगता है कि यह पुरस्कार गरिमामय नहीं है, जो है भी नहीं तो उन्हें विनम्रतापूर्वक सामूहिक रूप से यह निर्णय ले लेना चाहिए कि न्यास के पुरस्कार हमें लेने ही नहीं हैं। न्यास अध्यक्ष जिन्हें शायर भी बताया जा रहा है, तो शायर हैं तो संजीदा भी होंगे ही पर वे संजीदा लगे इसलिए नहीं कि पहले तो यह नौबत ही क्यों आई कि साहित्यकारों को उनके पास याचक के रूप में आना पड़ा! चलो मान लेते हैं हाजी मकसूद बहुत व्यस्त हैं, साहित्यकारों के इस असंतोष की भनक उन्हें नहीं लगी। पर मिलने का समय मांगने पर ही सम्मानपूर्वक कह देते कि इस आग्रह के लिए यूं याचक होने की जरूरत नहीं है, न्यास अपनी गलती ठीक कर लेगा। साहित्यकार तो गरिमा के नाम पर गरिमाहीन हुए सो हुए, अपने (शायर) न्यास अध्यक्ष भी खुद के संजीदा होने का प्रमाण नहीं दे सके और अखबारों में दाता-याचकों के रूप में उनके फोटो छप गये।
अब पता चला कि समाज में साहित्यकारों की पूछ और सम्मान लगातार कम क्यों होता जा रहा है, और इन साहित्यिक-गोष्ठियों में घूम-फिर कर उन्हीं छप्पन के अलावा सत्तावनवां नया चेहरा दिखाई क्यों नहीं देता है?
8 जनवरी, 2013

1 comment:

NEERAJ JOSHI said...

बीकानेर से प्रकाशित सांध्‍यकालीन विनायक अखबार के मंगलार के अंक का संपादकीय पढा। नगर के साहित्‍यकारों को लेकर जो सम्‍मान दिल में था उसको चोट लगी। अखबार के संपादकीय में जो लिखा गया है वह संपादक जी की सोच कही जा सकती है पर यदि यही हकीकत है तो संबंधित लोगों को आगे आकर कुछ सही करना चाहिए।