Monday, January 28, 2013

आशीष नंदी की कही


पचहत्तर साल के आशीष नंदी समाजशास्त्री और सांस्कृतिक-राजनैतिक विश्लेषक माने जाते हैं, देश में भी प्रतिष्ठा है। पहले उन्हें कभी पढ़ा नहीं, नाम और काम ही सुना था। जयपुर में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल ने परखी का काम किया। नंदी ने भारतीय समाज की अपनी समझ की बानगी दे दी। इस सबसे लगता है कि यह मीडिया जिसमें टीवी, अखबार और साहित्यिक-सामाजिक पत्रिकाएं भी शामिल हैं: किस तरह कैसे-कैसे लोगों को बढ़ावा दे देती हैं। यह जरूरी नहीं कि किसी एक विधा या अनुशासन में पारंगत अन्य विषयों में भी पारंगत हो लेकिन ऐसे नामचीनों से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि जिन विषयों और क्षेत्रों को जानते-समझते नहीं उन पर टिप्पणी करने से या अपनी राय प्रकट करने से उन्हें बचना चाहिए।
नंदी उस सामान्य प्रतिक्रिया का शिकार खुद भी देखे गये-जिनमें एक गलती सुधारने के चक्कर में गलती दर गलती की जाती है। उन्होंने बिना सामाजिक ताने-बाने को समझे पहले तो अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ों को भ्रष्टाचारी बता दिया और फिर वे भ्रष्टाचार को ही अच्छा बताने लगे। बिना यह जाने कि पूरे सिस्टम पर उच्च कुल का कब्जा है और अधिकांश उच्च कुलीन अच्छे कामों के अलावा गलत कामों पर भी अपना विशेषाधिकार जताये बिना नहीं रहते। वह चाहे फिर बलात्कार हो या भ्रष्टाचार। यह सब करके भी वे अधिकांशत: अपने प्रभावों के चलते बच जाते हैं।
ऐसा कोई दलित या पिछड़ा यदि करता है तो इसे उच्च वर्ग दलितों और पिछड़ों के दुस्साहस के रूप में लेता है। फिर वह इस जुगत में लग जाता है कि किसी पिछड़े या दलित ने यदि ऐसी हिम्मत की है तो उसे सबक सिखाना जरूरी है। इस तरह की मानसिकता देश के मध्य-क्षेत्र में तो बहुतायत से मिलती ही है, राजस्थान में भी इस तरह की मानसिकता से अकसर दो-चार हुआ जा सकता है। अब पता नहीं नंदी किस तरह के समाजशास्त्री हैं और हैं भी तो किस समाज का उनका अध्ययन है!
इन वर्षों में शुरू हुआ यह लिटरेचर फेस्टिवल किस साहित्य कोप्रमोटकर रहा है? पता नहीं लेकिन इसका आयोजन हर बार विवादों में जरूर रहा है। यदि विवाद ही सफलता का मानक है तो ऐसे आयोजन सफल कहे जा सकते हैं। नये युवक साहित्य से कितना जुड़ रहे हैं और किस तरह जुड़ रहे हैं यह भी अन्वेषण का विषय हो सकता है। जिन संजीदा साहित्यकारों को इसमें आमंत्रित किया जाता है वे भी क्या केवल इसलिए नहीं चले आते हैं कि इसी बहाने सही कुछ नए लोगों में परिचित हो जाएंगे या अपने कुछ नए पाठक बना लेंगे या कुछ मौज-मस्ती कर लेंगे। यह भी मान सकते हैं कि इतने बड़े आयोजन जिनमें कई-कई सत्रों में अलग-अलग विषयों पर चर्चाएं होती है, कुछ हासिल होता ही होगा लेकिन किस कीमत पर? किसी के पास अनाप-शनाप धन है तो अपने कुछ शौक इस तरह भी वे पूरे कर लेते हैं।
28 जनवरी, 2013

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