Tuesday, January 1, 2013

‘तीन-तेरह, घर बिखेरै’


ईसवी सन् 2013 का आज पहला दिन है। अंग्रेजों के यहां आने से पहले इस कालगणना की जानकारी बहुत कम को रही होगी। भारतीय भू-भाग में इससे पहले भिन्न-भिन्न कारणों से अलग-अलग समूहों-अनुशासनों में कालगणना के जुदा-जुदा मानक तय थे-विक्रम संवत्, शक संवत्, वीर संवत आदि-आदि। मुगलों के यहां आने के बाद हम कालगणना के हिजरी तरीके से भी वाकिफ हुए।
कभी कहा जाता था कि अंग्रेजों के राज में कभी सूर्य अस्त नहीं होता है। तब इसके मानी यह नहीं थे कि सूर्य बदचलन हो गया था। सूर्य तो अपनी गति से चला है हमेशा, पर अंग्रेजों का राज घूमती हुई पृथ्वी के उन कई हिस्सों पर था जिनमें से कोई कोई हिस्सा सूर्य के सामने रहता ही था। चूंकि अंग्रेज अपने रंग-ढंग और अपनी कालगणना पद्धति से ही चलते थे सो जहां-जहां उन्होंने राज किया वहां-वहां के लोगों ने अपनी-अपनी अनुकूलताओं से उनका खान-पान का ढंग, पहनावा तो अपनाया, पर सबसे ज्यादा जो अंग्रेजों से अपनाया गया वह ईसवी कालगणना पद्धति ही थी। हमारे यहां भी ऐसा ही हुआ है। कालगणना, पहनावा और एक हद तक खान-पान का ढंग हमने अंग्रेजों से लिया यद्यपि खान-पान हमारा मुगलों से ज्यादा प्रभावित है।
देश की आबादी के बड़े हिस्से (निम्न और निम्न मध्यम वर्ग) को छोड़ दें तो उत्तर-आधुनिक संचार साधनों के इस युग में शेष उस छोटे समूह के रंग-ढंग, खान-पान, पहनावे को तय करवाने में मीडिया के, टीवी और अखबारी दोनों रूप सफल होते दीखते हैं। बाजार को मीडिया का माई-बाप कहें या आका, तो आका ही उचित जान पड़ता है। क्योंकि मीडिया के सारे जतन बाजार को ही रोशन करने में लगे दीखते हैं। यद्यपि अमरीकी और कई यूरोपीय दुनिया के टीवी कार्यक्रमों से विज्ञापनों को हटाने का दौर शुरू हो गया है। देर-सबेर यह दौर हमारे यहां भी आयेगा ही। अमरिकी और यूरोपीय देशों से अब तक लगभग पचास साल पीछे चलने वाली तकनीक से प्रभावित हमारी मानसिकता का यह काल-अन्तराल यद्यपि लगातार कम हो रहा है लेकिन फिर भी हमारा संस्कार इस अन्तराल को बनाये तो रखेगा ही।
काल-क्षेत्र के हिसाब से मीडिया जिस तरह त्योहार-तिथियों को भुनाने लगा है उससे लगता है कि वह साल के 365 दिन ही कुछ कुछ निकाल लाने में सफल हो जायेगा। इस सारे तामझाम में एक बात तो ठीक यह लगी कि 2013 को मीडिया ने शुभ और उम्मीदों भरा बता दिया। जबकि तीन तेरह को लेकर पूरी दुनिया के लोक में कई भ्रान्तियां और आशंकाएं प्रचलित हैं और इनके चलते ही कई मुहावरे-कहावतें और घटनाएं भी प्रचलित हैं। जैसे तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा, तीन-तेरह घर बिखेरै, तीन-तेरह होना या करना आदि-आदि। इन मुहावरों, कहावतों, घटनाओं ने इन अंकों का हाल भी वैसा ही किया है जैसा कुछ स्त्रियों या कुछेक पुरुषों को खुरपगा/खुरपगी, डाकण, खराब पगफेरे (का या की) आदि-आदि कह दिया जाता है।
1 जनवरी, 2013

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