Thursday, January 10, 2013

सैनिकों की मौत पर यूं भी विचारें


जान किसी की भी हो, उसका लिया जाना अमानवीय कृत्य है। इस बिना पर भी नहीं कि उसने किसी की जान ली है। सजा के तौर पर जिस किसी की जान ली जाती है, वह सजा दरअसल उसे नहीं उसके प्रिय या परिजनों को ही मिलती है। इसीलिए मौत या फांसी की सजा को जायज नहीं ठहराया जा सकता।
इसी प्रकार किन्ही दो देशों की दुश्मनी में आये दिन जानें जाती रही हैं, इसी सोमवार को जम्मू-कश्मीर में भारत-पाक नियन्त्रण रेखा पर गश्ती दल के दो भारतीय जवानों को पाकिस्तानी सेना के जवानों ने या कश्मीरी आतंकवादियों ने बर्बरता से मार दिया। यदि यह कृत्य पाक सैनिकों ने किया है तो केवल यह दोनों देशों के बीच हुए युद्ध विराम समझौते का उल्लंघन है बल्कि दोनों देशों के बीच लगातार चले रहे मित्रतापूर्ण प्रयासों को एक झटका भी है। आतंकवादियों की करतूत की आशंका तो इसलिए व्यक्त की जा रही है कि जिस बर्बरता से भारतीय सैनिकों को मारा गया है वह उन बरगलाये कश्मीरी आतंकवादियों का क्रूर कृत्य हो सकता है जो पाक अधिकृत कश्मीर में प्रशिक्षण लेते हैं और इस बर्फबारी के समय पाक सैनिकों के सहयोग से कश्मीर में दहशत पैदा करने को प्रवेश करते हैं।
घटना तो हो गई, निन्दनीय भी है। सत्ता पक्ष ने इसकी भर्त्सना की और विपक्ष ने सरकार की पाक नीतियों को गलत बताया। इन प्रतिक्रियाओं को सिर्फ रस्म अदायगी इसलिए कह सकते हैं कि ठीक यही प्रतिक्रिया तब भी होती जब संप्रग विपक्ष में और राजग सरकार चला रहा होता। इन रस्म अदायगियों के चलते ही इस तरह की घटनाओं से निबटने की सही रणनीति नहीं बनती है और उसकी पुनरावृत्तियां भी होती रहती हैं। खास तौर से कश्मीर एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है, इस पर केवलहकबाजी सेफैसले नहीं हो सकते हैं। आजादी के तुरत बाद भारत की सरकार का कश्मीर के तत्कालीन शासक हरीसिंह के साथ हुए समझौतों पर बाद में कायम रहना कश्मीर समस्या के मूल में एक बड़ा कारण है, और इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का अगम्भीर, अदूरदर्शी और अनैतिक फैसला एक हद तक जिम्मेदार माना जा सकता है। पड़ोसी पाकिस्तान का रवैया तो गैर-जिम्मेदाराना है ही। जिसे वह खुद ही ज्यादा भुगत रहा है। इसीलिए कहा जाता है कि आप चैन से तभी सो सकते हैं जब आपका पड़ोसी चैन से सो रहा हो।
कश्मीर में परसों की हत्या की घटना के बाद पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, टीवी पर इसे लेकर बहसें हो रही हैं। अखबारों में भी लेख और विरोध वक्तव्य प्रकाशित हुए हैं। यह सब इसलिए भी जरूरी है कि यह घटना के जिम्मेदारों को मानसिक दबाव में लाता है, जो जरूरी भी है। लेकिन उद्वेलन, विरोध और गुस्से में विवेक की जरूरत ज्यादा होती है और तभी वह दावं पर भी होता है। अतः इन सबके साथ हमें उन कारणों पर विचार करना चाहिए कि इस तरह की स्थितियां मानव समाज में पैदा ही क्यों होती हैं? कहने वाले कह सकते हैं कि पाकिस्तान के किये-धरे में हम कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं, सही भी है। लेकिन इस पर विचार इस तरह शुरू करना चाहिए कि आपके घर का सदस्य पड़ोसी बना ही क्यों? और बन गया तो वहां की वर्तमान स्थितियां ऐसी क्यों बनी। हो सकता है ऐसा विचारने से हम पाकिस्तान की स्थितियों को तो नहीं बदल सकते हैं लेकिन यह तो हो ही सकता है कि पाकिस्तान जैसी स्थितियों में जाने से हम अपने को तो बचा सकते हैं? ऐसा संभव भी है! पिछली सदी के आठवें-नवें दशक के पंजाब को याद कर लें, उन विकराल स्थितियों को भी हमने सम्हाला है!
10 जनवरी, 2013