Wednesday, April 22, 2015

एक खबर और एक प्रेसनोट के बीच

लोक में एक कहावत प्रचलित है कि दाई से पेट छिपा नहीं रहता, इसी तरह जो पत्रकार हैं और सक्रिय हैं, उनकी परगा में क्या कुछ हो रहा है, उसकी जानकारी येन-केन उन्हें हो ही जाती है। ये अलग बात है कि खबर किसे बनाना है और किसे नहीं, यह तय उसका विवेक करता है या उसकी डेस्क। पत्रकारिता चूंकि मानवीय कर्म है इसलिए भूल होने की आशंकाएं जिस तरह बनी रहती है उसी तरह जोड़-तोड़ से खबरों को बनाने की गुंजाइश भी रहती है। हो सकता है ऐसी भूलों या जोड़-तोड़ से सीधे प्रभावित होने वाला अपने को असमर्थ मानकर चुप्पी साध ले या आपस में शिकवा-शिकायत कर मन हलका कर ले। कुछ ऐसे भी होते हैं जो तल्ख प्रतिक्रिया या न्यायिक चुनौती भी दे सकते हैं। लेकिन यह सब खबर के कन्टेंट और उसके असर के साथ-साथ इससे भी तय होगा कि प्रभावित की हैसियत क्या है। इनमें कुछ ऐसे भी होंगे जो ठठेरे की बिल्ली की अवस्था पाकर चौंकते तक नहीं।
अपने पेशे पर आज फिर बात इसलिए करनी पड़ी कि सोमवार को राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण के स्टेट नेशनल पृष्ठ नौ पर बीकानेर जिले के हवाले से एक सनसनीखेजखबर लगी कि जिले में ऑपन डेफिकेशन फ्रीयानी गांवों को पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त किए जाने वाले सरकारी कार्यक्रम (ओडीएफ) में पौने दो अरब का घोटाला हुआ है। पिछले पांच-सात साल में सैकड़ों-हजारों करोड़ के घोटालों की खबरें पढ़-पढ़ इसके आदी हुए पाठकों पर इस खबर का वैसे तो कोई असर नहीं देखा गया। चूंकि मामला जिले का है और कठघरे में सीधे आ लिए जिला प्रशासन को अपनी सफाई देना बनता ही था, दी भी और उसी दिन रात साढ़े नौ बजे जनसम्पर्क कार्यालय से ई-मेल द्वारा प्रेसनोट सूचिबद्ध मीडिया हाउसों को पहुंच गया। जिस तरह पेज भरने में सरकारी प्रेसनोट का उपयोग किया जाता है, वैसे ही सुविधानुकूल उसका भी उपयोग कर लिया गया। इस प्रेसनोट में सावधानी यह रखी गई कि इसे पत्रिका की उक्त खबर का सीधे-सीधे काउंटर घोषित न होने दिया जाय। जबकि बहुत ही समझदारी से बनाये इस प्रेसनोट का उद्देश्य उस सनसनीखेज खबरको काउंटर करना ही था। जैसी कि हमपेशेवरों ने परम्परा बना रखी है कि इस तरह कुछ भी न छापा जाय कि दूसरा उसे कुचरनी माने। नहीं जानते कि कितने हमपेशाओं ने उल्लेखित प्रेसनोट का संबंध पत्रिका की उक्त खबर से माना। माना भी तो जाहिर इसलिए नहीं होता क्योंकि जिन्होंने भी उस प्रेसनोट का उपयोग किया, वह रोज-हमेश की तरह चलताऊ ही था। लेकिन आश्‍चर्य है कि पत्रिका ने इस प्रेसनोट को मंगलवार के संस्करण में लगाना जरूरी क्यों नहीं समझा। एक कारण यह हो सकता है कि साढे़ नौ बजे आया यह प्रेसनोट वहां किसी के ध्यान ही न आया हो, उस व्यस्त समय में इस तरह की गुंजाइश रहती ही है, इसलिए सन्देह का लाभ तो बनता है।
उदयपुर डेट लाइन से राजस्थान पत्रिका के स्टेट नेशनल पृष्ठ पर लगी उक्त खबर का तर्क खबर के कन्टेंट में तो बरामद नहीं हुआ लेकिन इसके आधिकारिक होने का आधार बीकानेर प्रशासन द्वारा इस मिशन से संबंधित केंद्र सरकार को भेजे आंकड़ों को बताया गया है। खबर के पुंछल्ले के रूप में जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी का वक्तव्य भी दिया गया है जिनमें वह बता रहे हैं कि 2012 के बेसलाइन सर्वे के आंकड़ों को डालते हुए उस दौरान निजी तौर पर बने शौचालयों को भी शामिल कर लिया गया, इसलिए यह संख्या बढ़ी है। यदि यह सचमुच डाटा एंट्री की भूल है तो जाहिर होता है सरकारी मुलाजिमों के काम करने के दक्षहीन तरीके क्या गुल खिला सकते हैं, ऐसी दक्षहीनता सरकारी काम-काज में अकसर देखी जाती है। इस मामले में यदि सचमुच ऐसा ही हुआ है तो अनायास ही किसी के हाथ खुद उन्होंने उस्तरा पकड़वा दिया।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। सोमवार रात जारी सरकारी प्रेसनोट जैसा कि यह बता रहा है कि बीकानेर जिले में इस मिशन के तहत व्यक्तिगत शौचालय प्रोत्साहन राशि के रूप में सवा पन्द्रह करोड़ रुपये ही व्यय किए गये हैं, इस तरह इस खबर को ब्रेक करने वाले की हड़बड़ी साफ जाहिर होती है। यह खबर हास्यास्पद इसलिए भी हो गयी कि सवा पन्द्रह करोड़ रुपये के व्यय में पौने दो अरब का घोटाला हो कैसे गया। खबर को ब्रेक करते समय आंकड़ों की काउंटर पुष्टि करने की जिम्मेदारी संबंधित पत्रकार की ही होती है, यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह अपने पेशे के प्रति गंभीर नहीं है। सचमुच ऐसा है तो नहीं जानते कि पत्रिका समूह इस खबर को जमींदोज करेंगे या सबक लेकर भविष्य में ऐसी हड़बड़ियों से बचने की हिदायत देंगे।
पत्रिका ने आज के संस्करण में बीकानेर के पांच नम्बर पृष्ठ पर सोमवार को जारी उक्त सरकारी प्रेसनोट को स्थान दिया, हालांकि यह चतुराई तो बरती ही है कि लगे कि यह समाचार प्रेसनोटीय न होकर इनहाउस समाचार है। पर जैसी कि ऊपर आशंका जताई कि पत्रिका अपने सोमवार वाले उस सनसनीखेज समाचार को कहीं जमींदोज न कर दे, आज की कवायद से लगता है उन्होंने उसे जमींदोज करने की असफल कोशिश की है। असफल इसलिए कहा कि आज के समाचार को भी उन्होंने उदयपुर डेट लाइन से लगाया। इस गड्डमड्ड में पता ही नहीं चलता कि आज की खबर सोमवार की खबर का खंडन है या उससे अलग। सोमवार को तरकश से निकले तीर को इस खबर से भेदना इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें उस खबर का कोई हवाला नहीं है। हो सकता है शायद पत्रकारीय हेकड़ी ऐसा करने से रोकती हो। पत्रिका जैसा अखबार खेद प्रकट करने या सफाई देने में झिझकने लगा हो तो मान लेना चाहिए कि कुलिशजी के मूल्यों से वह किनारा करने लगा है। खैर इसे यहीं छोड़ते हैं, और मान लेते हैं आज की खबर से सोमवार की खबर को ढकने जैसा उपक्रम तो पत्रिका ने किया ही है।
अब दूसरे पक्ष की बात कर लेते हैं, कोई अधिकारी या व्यवस्था यदि भ्रष्ट है तो भी झूठे आक्षेपों से बचाव का उसे कानूनन हक होता है। तब पत्रकारिता के पेशे की ज्यादा जिम्मेदारी बनती है कि उसकी असल करतूतों को नजरअंदाज न करे, जबकि ऐसी जिम्मेदारी से हम अकसर बचते पाये जाते हैं। लेकिन ये तो कतई उचित नहीं है एक फ्लैश मार कर किसी को भी लांछित कर दें। और अफसर यदि ईमानदार है तो फिर ऐसी खबरों का एकबारगी तो उसे मलाल होगा लेकिन ईमानदारी की आन्तरिक ताकत यदि उन्होंने अर्जित कर ली है तो उन्हें ज्यादा परवा नहीं करनी चाहिए।
22 अप्रेल, 2015


2 comments:

Www.nadeemahmed.blogspot.com said...

sir ji aap ek khoji aur jimmedar patrakar ki la jawab bhumika ka nirvahan kar rahe h

mahendra said...

आज सम्पादकीय पढ़ा,विश्लेष्ण सटीक लगा|अपने मीडिया का एक अलग रूप दिखाया है इसके लिए धन्यवाद्|