Tuesday, April 14, 2015

कच्ची बस्तियों के लिए योजना

विकास के शहरी मॉडल के चलते बीकानेर ही क्यों देश के सभी छोटे-बड़े शहर हांपने लगे हैं। जो ज्यादा फैले हैं उनकी हांपणी बड़ी है। बीकानेर की गिनती बहुत छोटे शहरों में तो नहीं ठीक-ठाक में होने लगी है। खुद शहर में बढ़े गरीबों की आबादी के बड़े हिस्से और रोटी-रोजी की तलाश में शहरों में आए गरीब ग्रामीणों ने जहां गुंजाइश देखी वहीं कच्ची बस्तियां बसा ली। इन बस्तियों में आधारभूत न्यूनतम सुविधाएं नहीं होती। बिना सलीके से बसी इस तरह की बस्तियों को महानगरों के रइसों ने स्लम नाम दिया, अब ऐसी बस्तियों को आधिकारिक तौर पर सरकार भी स्लम कहने लगी  और संवेदनशील माने जाने वाले अखबार वालों को भी इस शब्द से परहेज नहीं रहा। स्लम के माने गंदी बस्ती, जबकि ऐसी सुविधाहीन बसावटों के लिए हिन्दी के पास एक कच्ची बस्ती जैसा सम्मानजनक शब्द उपलब्ध है। अखबार वाले यह कहकर छूट ले सकते हैं कि सरकार ही जब आधिकारिक तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल कर रही हो तो हमारे कहने पर एतराज क्यों। हालांकि इस शब्द पर वैसे ही एतराज होना चाहिए जैसा किसी दलित को जातिसूचक शब्द से बुलाये जाने पर होता है, उम्मीद करते हैं कभी ऐसे प्रावधान पाएंगे।
खैर, इस भाषा विमर्श को यहीं छोड़, बात शहर के लिए आई लगभग तीन हजार छह सौ पचासी करोड़ रुपये की योजना की कर लेते हैं। शहर में छितराई सैकड़ों ऐसी कच्ची बस्तियों में से इकसठ को इस योजना में चिह्नित किया गया है। क्यूरिटव और प्रिवेन्टिव नाम से दो चरणों में खर्च होने वाली राशि को बस्तीवार बराबर बांट कर बात करें तो एक-एक पर इकसठ-इकसठ करोड़ रुपये खर्च होने हैं जिसमें बस्ती को व्यवस्थित करके मकान बना कर अन्य मूलभूत सुविधाओं की लगभग व्यवस्था की जानी है। इस मद के चार हिस्से किये गये हैं जिनमें केन्द्र, प्रदेश और स्थानीय निकायों की हिस्सेदारी के साथ एक हिस्सा लाभार्थियों को भी जुटाना होगा। दीखने में यह योजना अच्छी लग सकती है कि निगम यह केवल ऋण से आयी रकम से ही नहीं कर रहा। इसमें उनकी हिस्सेदारी भी तय की गई है जिन्हें मकान और अन्य सुविधाएं मिलनी है। लेकिन ऐसी योजनाओं का हश्र क्या होता है, सभी जानते हैं। भ्रष्टाचार के चलते लगभग आधा बजट कमीशन की भेंट चढ़ जाता है, शेष जो लगता है उसकी गुणवत्ता हेतु जिम्मेदार तकनीकी अधिकारी मिलने वाले कमीशन की कीमत पर आंखें मूंद लेते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि सरकारें आजकल ऐसी अधिकांश योजनाएं विदेशी ऋण के आधार पर बनाती हैं, जिसमें केवल ब्याज भरना होता है बल्कि कभी कभी उसे हमें चुकाना भी होगा, चाहे अन्य रूपों में ही सही। ऐसे में यह भार प्रत्येक देशवासी पर होगा। तब क्यों नहीं हम इस धन की निगरानी शुरू करते हैं।
स्थानीय निकायों यथा नगर निगम और नगर विकास न्यास की शहरी विकास के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये के सालाना बजट की खबरें हम प्रतिवर्ष पढ़ते हैं। वह सब धन भी प्रकारान्तर से प्रत्येक नागरिक का होता है। ऐसे सैकड़ों करोड़ रुपये प्रतिवर्ष किस तरह खुर्द-बुर्द हो जाते हैं कि पता ही नहीं चलता। सभी तरह की ऐसी बजट राशि दो-तीन वर्ष ही पूरी ईमानदारी और गुणवत्ता के साथ खर्च हो जाये तो खुद अपना ही शहर पहचानने में नहीं आए। लेकिन इस धन को बला या आफत से ज्यादा हम महत्त्व ही नहीं देते। जो जैसी लूट मचा रहा है, मचाने देते हैं। यह तो आज तीन हजार छह सौ पचासी करोड़ जैसी बड़ी रकम की योजना आई तो बात कर ली। कमीशनखोरों और ठेकेदारों की गिद्ध दृष्टि इस पर अभी से ही पडऩी शुरू हो ही गई होगी।
14 अप्रेल, 2015


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