Thursday, April 9, 2015

बार-बार आपा देते वीके सिंह

विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह शायद उन लोगों में से हैं जो बिना जरूरत के अपने दूध में नीबू निचोड़ लेते हैं। वे फिलहाल एक महत्त्वपूर्ण मिशन पर दक्षिण-पश्चिमी एशियाई देश यमन में हैं। उनके वहां रहते उन चार हजार भारतीयों को सकुशल भारत लौटा लिया गया है जो युद्ध जैसी आपात स्थिति में वहां फंसे थे। माना जा रहा है कि अपनी पिछली करतूतों के चलते मंत्रिमंडल के आगामी पुनर्गठन में होने वाली छुट्टी को सिंह ने यमन मिशन की कामयाबी के चलते टलवा लिया था। लेकिन कल किया उनका ट्वीट फिर चर्चा में है जिसमें उन्होंने यमन से भारतीयों को निकालने को पाकिस्तान दिवस पर पाकिस्तानी दूतावास जाने से कम रोमांचक बताया। उनके इस ट्वीट पर मीडिया में जिस तरह चर्चा हो रही है वह शायद वीके सिंह से झल नहीं रही है, इसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने पत्रकारों के लिए ट्वीट कर लिख दिया कि 'प्रेस्टीट्यूट' से और क्या उम्मीद की जा सकती है, संभवत: उनका इशारा वैश्या (प्रोसिट्यूट) की तरफ था। इस ट्वीट के बाद जहां पत्रकारों को यह बात नहीं झल रही वहीं विरोधियों को भी मुद्दा मिल गया और सिंह को बरखास्त करने की मांग करने लगे। सोशल साइट्स पर उनका ट्वीट पाकिस्तान दिवस पर भी चर्चा में रहा था, जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी दूतावास के आयोजन में जाने को अनिच्छापूर्वक ड्यूटी बताया था।
इस सब के बीच जिन पेशेवर महिलाओं की अवमानना हुई है उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया है। वेश्यावृत्ति-पेशा मानव सभ्यता की कड़वी सचाई है और माना जाता है कि यह सबसे प्राचीन पेशा है। मनुष्य को विवेकशील सामाजिक प्राणी माने जाने के बरअक्स जो चुनौतियां आज भी खड़ी है उनमें हिंसा के अलावा वेश्यावृत्ति का पेशा भी मुख्य है। सभी जानते हैं कि कोई भी स्त्री अपनी इच्छा से इस पेशे को नहीं अपनाती। हमने समाज व्यवस्था ही ऐसी बनाई कि जिसमें इस तरह के छेद रह गये हैं। इस पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में विकसित हुई लगभग सभी सभ्यताओं में वेश्यावृत्ति के पेशे के प्रमाण मिलते हैं। आदिम सभ्यता की बात छोड़ भी दें तो आज जिस सभ्यतम युग में हम जी रहे हैं उसमें इस पेशे की कुरूपता बढ़ी ही है जो हमारे 'सभ्य' होने को आईने में ज्यादा निर्ममता से दिखाने लगी है।
गांधी से जो बहुत कम असहमतियां हैं उनमें उनके उस कथन से भी है जिसमें उन्होंने वकालत के पेशे की तुलना वेश्यावृत्ति से की। किसी भी पेशे की इस तरह हिकारती तुलना दरअसल अपने चेहरे के दाग को छुपाने की असफल कोशिश होती है। या यूं कह सकते हैं कि हमारा सभ्य समाज अपने को दक्ष ढंग से सहेज ही नहीं पाया इसलिए स्त्रियों को यह पेशा करने को मजबूर होना पड़ता है। वैसे किसी अन्य से तुलना या उपमाएं देना अपने-आपमें एक कमजोर अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए। हम अधिकांशत: ऐसी तुलनाएं करना और उपमा देना अनायास कर बैठते हैं जिसमें किसी बड़े वर्ग या समूह के प्रति हिकारत का भाव दिखलाई देता है।
वीके सिंह ने अपना आपा पहले-पहल तब सार्वजनिक किया जब वे थलसेना अध्यक्ष जैसे महती पद पर थे। जिस जन्म तारीख के आधार पर सभी पदोन्नितयां पाकर इस पद तक वे पहुंचे थे उसी जन्म तिथि के समांतर उन्होंने अपनी दूसरी जन्मतिथि पेश कर, उस नयी तिथि से सेवानिवृत्ति इसलिए चाही ताकि उन्हें पद पर बने रहने का एक वर्ष से ज्यादा का समय और मिल जाए। तब संप्रग की सरकार इसके लिए तैयार हुई और ही उच्चतम न्यायालय ने उनके तर्कों को स्वीकार किया था। कहा जाता है इस का बदला लेने के लिए ही वे भाजपा में गये। भाजपा को पिछले चुनाव में ऐसे सनसनीखेज व्यक्तित्वों की जरूरत थी। उम्मीदवार बने और जीत गये। उम्मीद उन्हें कैबिनेट मंत्री की थी, लेकिन माजना नहीं था सो राज्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद से ये जब तब इसी तरह उघाड़े होते रहे हैं। रही बात सिंह की रोमांच की आकांक्षा की तो उन्हें समझना चाहिए कि अपनी ड्यूटी को दक्षता से निभाने में जो रोमांच हासिल होता है वह अनर्गल लिखने-बोलने में कदापि नहीं।
इस आलेख से पत्रकारीय पेशे को दूध का धुला कहलवाने का कोई आग्रह नहीं है। इस पेशे में उन लोगों की आमद लगातार बढ़ रही है जो या तो अयोग्य हैं या अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग कर रहे हैं। समाज के अन्य हिस्सों में जिस तरह कर्तव्यच्युत होने की होड़ लगी है उससे यह पेशा भी मुक्त कितने' दिन रहतालेकिन मीडिया और न्यायपालिका जैसे लोकतंत्र के महत्त्वपूर्ण अंगों से उम्मीद की जाती है कि वे पेशे की गरिमा बनाए रखें अन्यथा ये यदि पटरी से उतरते हैं तो सर्वाधिक जिम्मेदार इन्हीं दोनों को ठहराया जायेगा। ―दीपचंद सांखला

09 अप्रेल, 2015

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