Wednesday, April 15, 2015

सांस्कृतिक नगरी की व्यथा

बीकानेर शहर में साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां लगातार होती रही हैं। इसी बिना पर आत्ममुग्धता में लोग इसे छोटी काशी कहने से भी नहीं चूकते। ऐसी आत्ममुग्धता कमोबेश कई शहरों में देखी-सुनी जाती है और ऐसे सभी शहर इस तरह अपने को छोटा कहलवाने से गुरेज नहीं करते। राजस्थान में ही आठ-दस कस्बे-शहर अपने को इसी तरह छोटा कहलवाने को आतुर रहते हैं। बीकानेर है तो शहर की इसी पहचान पर उन्हें गर्व क्यों नहीं है। गुलाबीनगरी, सूर्यनगरी जैसा कुछ कहलवाने की कोई ईर्ष्या है भी तो, ऐसी कोई शब्दयुक्ति तलाशें, जो सटीक भी हो और सभी को स्वीकार्य भी।
दो दशकों से भी ज्यादा समय से अधूरे पड़े रंगमंच की पीड़ा जाहिर करने को इससे जुड़े लोग कल गांधी पार्क में जुटे और इसे जल्द पूर्ण करवाने के लिए एकजुट होने का संकल्प लिया। इस बैठक पर विचारा तो छोटी काशी की आत्ममुग्धता वाली  बात का स्मरण हो आया। एक ऐसी सांस्कृतिक नगरी जिसके संस्कृतिकर्मी भी किसी विभाग-विशेष के कर्मचारियों की तरह अपने हितों के लिए इकट्ठे होते, विचारते और प्रदर्शन के लिए आतुर देखे जाते हैं। दूसरे शहरों में भी ऐसा ही होता होगा, देखा नहीं तो उन्हें भुंडाने का कोई बहाना भी नहीं। लेकिन अपने शहर में कैसी भी सांस्कृतिक गतिविधि हो--चाहे साहित्य का कोई आयोजन हो या संगीत का, पेन्टिंग या मूर्तिकला की प्रदर्शनी हो या फिर नाटक ही क्यों हो। कोई बताए कि इनमें से किसी भी विधा के रसिकों का या रुचि रखने वालों का कोई समूह विकसित किया जा सका। इस तरह के आयोजनों में पहले तो गैर विधायी जुटते ही नहीं हैं। जुटते भी हैं तो कार्यक्रम में या तो उनके किसी रिश्तेदार, मित्र की भागीदारी होती है, या आयोजक या प्रस्तोता कोई प्रभावी हैसियत रखता है, ऐसे में हाजिरी की गरज से उपस्थित होकर पूरे कार्यक्रम के दौरान अलसा-मलसा करते रहेंगे या किसी साधक की तरह साधना-लीन हो कार्यक्रम समाप्ति का इन्तजार। आज से कोई तीस-पैंतीस वर्ष पहले तक जरूर कवि-सम्मेलनों, मुशायरों का श्रोतासमूह था जो कविता लिखने के भाव बिना उठे कविता शायरी सुनने आता था। ऐसे समूह की बात तो दूर, अंगुलियों पर गिनने जितने भी लोग इस सात लाख की आबादी में आज हैं तो बताएं। ऐसे में किस बिना पर, सांस्कृतिक नगरी या छोटी काशी कहलवाने का दम भरते हैं। ऐसा पढऩा-सुनना, हो सकता है अच्छा नहीं लगे, लेकिन असलियत कुछ यही है।
यह सब आज इसलिए लिखा है कि रंगमंच-कर्म में रुचि रखने वालों का यहां ठीक-ठाक समूह है और वह लगातार सक्रिय रहता है। ऐसे में उन्हें एक व्यवस्थित रंगमंच चाहिए। शासन-प्रशासन की तासीर दूसरी है। उन्हें अधिकतम लोगों को संतुष्ट करना होता है। इसलिए उनकी प्राथमिकताएं भी वही रहती हैं। शहर के सौ-पचास लोगों की इच्छाओं का खयाल वे संभव नहीं मानते। यानी रंगमंच की यह जरूरत आम-अवाम की नहीं है। आम शहरी की भाषा में बात करें तो साहित्य-संगीत वाले तो अपनी बायड़ किसी छोटे-बड़े सभागार में काढ़ सकते हैं, रंगमंच वालों के लिए ऐसा संभव नहीं है। एक टाउन हॉल है जिसकी जरूरत औपचारिक सरकारी आयोजनों के लिए पड़ती है, सो उसका कामचलाऊ रख-रखाव करना नगर विकास न्यास की मजबूरी है। ऐसा यदि हो तो टाउन हॉल के हाल इससे भी बुरे हों।
कहने का मकसद यही है कि ऐसे सांस्कृतिक आयोजन आम-अवाम के किसी छोटे समूह की जरूरत नहीं बनेंगे तो शासन को इसकी जरूरत है और ही इसके लिए फुरसत। 'सरकार आपके द्वार' के दौरान मुख्यमंत्री के सामने रवीन्द्र रंगमंच को पूरा करने का मुद्दा उठाया गया। उन्होंने बड़ी चतुराई से यह कहकर लॉलीपॉप दे दी कि इसे क्यों बहुआयोजनीय परिसर के रूप में विकसित करने पर विचारा जाय, यदि ऐसा संभव है तो पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में इसे पूरा किया जा सकता है। इस पीपीपी मॉडल में फंसने को लगता है कोई तैयार नहीं हुआ। कछुए-सी धीमी चाल की गत को प्राप्त यह रंगमंच अब भी उसी गति को हासिल है। अधिकृत सूत्र बताते हैं कि इस रंगमंच का वर्ष 2015-16 में भी कुछ नहीं होना। सांसद, विधायक भी ये मान बैठे हैं कि सौ-पचास वोटों के लिए कुछ करवा देने पर भी क्या गारन्टी कि वे वोट हमें ही देंगे, फिर ऐसी योजना पर अपनी ऊर्जा को क्यों जाया करें।
हजार सीटोंवाला रवीन्द्र रंगमंच तैयार होगा तब होगा, लेकिन रंगमंच के दो-एक सौ नियमित रसिक (करने वाले नहीं, देखने वाले) जुटा लें तो हो सकता है उनका दबाव ही काम कर जाय और इस टाउन हॉल का सुधारा हो जाय। फिलहाल तो शहर में बीस-तीस भी ऐसे रसिक नहीं दीखते जिन्हें सही मायने में रंगमंच का दर्शक कहा जाय। ऐसे रसिक श्रोता और दर्शक होंगे तभी शहर सांस्कृतिक तकमे का दम भर सकता है। अन्यथा आपस के श्रोता-दर्शकों के दम पर आत्ममुग्ध होना भ्रम से ज्यादा नहीं है।

15 अप्रेल, 2015

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