Friday, March 20, 2015

ओलावृष्टि और खेतिहर

देश के कई हिस्सों में पिछले दिनों हुई बारिश और उसके साथ गिरे ओलों से खड़ी फसलों को नुकसान हुआ है। राजस्थान की बात करें तो यहां के अधिकांश जिलों के किसान इससे प्रभावित हुए हैं। इसलिए विधानसभा के चालू बजट सत्र को दो दिनों के लिए स्थगित किया गया ताकि मंत्री और विधायक अपने-अपने क्षेत्र की वस्तुस्थिति से अवगत हो सकें। अपने क्षेत्र बीकानेर में गेहूं, चना, इसबगोल और सरसों की फसलें प्रभावित हुई हैं। यहां का वह किसान जिसकी आजीविका मात्र खेती पर ही निर्भर है, असल संकट उसी के समक्ष है।
आजादी बाद देश के आर्थिक ताने-बाने में भारी बदलाव हुए हैं। हालांकि जीवन स्तर काफी सुधरा है लेकिन विकास के शहरी मॉडल ने आदमी को जड़हीन कर दिया। संघीय ढांचे प्रदेशों के गठन के चलते जहां नौकरियों ने भारी विस्थापन करवाया वहीं रोजगार की तलाश में ग्रामीण शहरों की ओर भी आने लगे। क्षेत्रीय अनुकूलताओं के आधार पर सदियों से बने आजीविका के साधनों में बदलाव आया, मुनाफा प्रकृति के चलते परम्परागत फसलों में बदलाव के साथ ऑटोमोबाइल और मशीनी आकर्षण ने हमारे इस उत्तर-पश्चिमी राजस्थान की पशुधन आधारित परम्परागत आजीविका को छिन्न-भिन्न कर दिया। ऊंटों-बैलों की जरूरत लगभग खत्म हो गई। बढिय़ा ऊन के बहाने ने इस इलाके के भेड़ पालन व्यवसाय को लगभग खत्म कर दिया। पसरते शहरों ने जहां शहरों से लगे खेतिहर को खदेडऩा शुरू कर दिया वहीं नहरी पानी के आने से जमीनों के भाव बढ़े तो दूसरे इलाकों के समृद्ध किसानों ने यहां का रुख कर लिया। कई लालचों के चलते स्थानीय गैर खेतिहर लोग भी खेतों के मालिक बन बैठे और परम्परागत खेतिहर को मात्र बंटाईदार बना लिया।
कहने को कृषि उपज मंडियों का विकास इन खेतिहरों के लाभ के लिए किया गया लेकिन उसका लाभ नव धनाढ्य वर्ग की तर्ज पर नव किसान वर्ग और मण्डियों के व्यापारी हड़पने लगे। आपवादिक तौर पर उन कुछ खेतिहरों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जो समृद्ध हुए हैं। शेष तो सब विपन्नता का जीवन ही जी रहे हैं।
ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी ऐसे नव किसान वर्ग को कोई बड़ा धक्का नहीं देती-मारे या तो उनके बंटाईदार जाते हैं या ऐसे कुछ खेतिहर जिनके खेत सिंचित क्षेत्र में गये और जैसे-तैसे वे जमे बैठे देखा देखी में व्यावसायिक फसलें लेने लगे या फिर वे जो असिंचित खेतों में नलकूप खुदवा कर खेती करने लगे। असल पीडि़त बंटाईदार ही होता है जिसे राज से घोषित मुआवजे में वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिलती। केन्द्र और प्रदेश सरकारों की ओर से दिए जाने वाले मुआवजों की स्केनिंग की जाय तो बन्दरबांट जैसा शब्द भी हलका लगने लगेगा। भ्रष्टाचार नीयत-हरामी ने आदमी को आदमी नहीं रख जो बना दिया उसके लिए अभी सटीक उपमा सृजित नहीं हो पाई है। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि केन्द्र और प्रदेश की सत्ता में फिलहाल जो काबिज हैं उन्हें विकास केवल इस शहरी मॉडल में ही नजर रहा है। भू-अधिग्रहण का नया कानून इसी के पगलिए हैं।
क्षेत्र की बात करें और गवार उपज की बात नहीं की तो बात अधूरी रहेगी। लगभग व्यावसायिक फसल में तबदील हो चुका गवार ऐसे घोर लालची लोगों के धक्के चढ़ गया जो खेतिहर, नवकिसान और मण्डी बिचौलियों तक को गटकने की क्षमता रखते हैं। कहने को ऐसे लोग किसान हित की बात करते हैं लेकिन उनका मकसद ऐसा कहकर अपनी ताकत बढ़ाना ही है। मीडिया तो केवल ऐसे ढिंढोरची की भूमिका में है जो हर घटित का बिना विवेक ढिंढोरा पीटता रहता है।

20 मार्च, 2015

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