Tuesday, March 17, 2015

स्त्री और शरद यादव

'आप क्या हैं, मैं आपको जानता हूं।' यह कथन राज्यसभा से सांसद और जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव का है। यादव शुक्रवार को बीमा विधेयक पर चर्चा करते हुए विदेशी निवेश को गोरेपन से जोड़ते हुए बहक गये और सांवलेपन को प्रतिष्ठ करने के लिए दक्षिण की महिलाओं की कद-काठी की तारीफ करने लगे। जाहिर है यह तारीफ सौन्दर्य बोध की होकर रस भीने मन की थी, सो तब से उक्त कथन से यादव का पीछा नहीं छूट रहा। भारतीय समाज से अन्यथा अच्छे से वाकिफ शरद यादव भी उस प्रसंग को 'झक' की तरह पकड़े बैठे हैं तभी कल फिर उस समय बहक गये जब मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने उनके उक्त कहे को अनुचित कहा। स्मृति का यह कहना था कि यादव ने लगभग बोलती बन्द करने के अन्दाज में उक्त वाक्य कह दिया। यादव की तब से ही छिछालेदर हो रही है। यादव स्मृति की किस जानकारी का जिक्र कर रहे थे, असली मंशा तो वे खुद स्पष्ट करें तभी पता चलेगा लेकिन दक्षिण की महिलाओं पर टिप्पणी से शुरू हुए इस विवाद में सामान्य पुरुष का तर्क किस तरफ पहुंचेगा यह किसी से छुपा नहीं है।
पुरुष प्रधान समाज, उसमें भी उच्च वर्गीय पुरुष मानसिकता के चलते अन्य वर्ग के पुरुष और सभी तरह की महिलाओं की स्थिति नियत है। किसी पुरुष को ओछा बताने के लिए 'नीच' बताना या स्त्री है तो छिनाल कहना पर्याप्त माना गया है। यही नहीं किसी सामूहिक बुरी प्रवृत्ति को भी लिंगानुसार इंगित ऐसे ही समानार्थक या समांतर शब्दों से करना हमारी आदतों में शामिल है। उच्चवर्गीय पुरुष की किसी भी बुरी प्रवृत्ति को नजरअन्दाज किया जाना, उनके धतकर्म को भी केवल महिमा मंडित करके कहा जाना और यहां तक कि ऐसा करना उनके हकों में मान लिया गया है। गरीब है और उच्च वर्ग का नहीं है या स्त्री है तो उनके लिए कुछ भी कहा जा सकता है। उच्च वर्ग के पुरुषों के अलावा भी ऐसे जो उच्च पदासीन है या 'सेलिब्रिटि' का 'तमगा' हासिल कर चुके कुछेक स्त्री-पुरुषों ने भले ही उच्चवर्गीय पुरुषों वाला सम्मान लगभग हासिल कर लिया हो लेकिन इसे सामाजिक बराबरी इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रत्येक सामाजिक को उल्लेखनीय स्टेट्स हासिल होना आगामी सौ-पचास वर्षों में संभव नहीं दीख रहा है। भले ही कुछेक दलित, पिछड़े, और स्त्रियाँ शासन-प्रशासन में पदासीन है या अन्य कोई बड़ी हैसियत लगभग हासिल कर चुके हों। उदाहरण फिल्म अभिनेत्री बिपाशा बसु के उस कथन के हवाला दिया जा सकता है जो उन्होंने जॉन अब्राहम के साथ अपने कई वर्षों के सहजीवन समाप्त होने के बाद जॉन से सम्बन्धित प्रश्न के उत्तर में कहा- 'जॉन! अब बूढ़े हो रहे हैं, उन्हें किसी से शादी कर लेनी चाहिए।' कोई सामान्य स्त्री चाहे वह किसी उच्च वर्ग की ही क्यों ना हो, ऐसी दबंगई से कहना तो दूर, सोच भी सकती है? ऐसे ही कई उदाहरण उन गैर उच्चवर्गीय पुरुषों के भी गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने अच्छी हैसियत हासिल कर ली है। लेकिन ऐसे छिट-पुट उदाहरण व्यापक समाज के परिवर्तनों के द्योतक नहीं माने जा सकते।
कोई स्त्री और पुरुष अपनी निहायत निजी जिन्दगी में विधि सम्मत क्या करते हैं, ऐसी ताक-झांक से मुक्त होने में समाज को अभी बहुत समय लगेगा। इसलिए सार्वजनिक जीवन के लोगों से यह उम्मीद कि उनका निजी जीवन भी उच्चवर्गीय पुरुष-प्रधान समाज द्वारा तय आदर्शों पर खरा रहे, उचित नहीं ठहराया जा सकता।
शरद यादव ने कल अपनी बात कहते हुए जिन तीन सामान्य कथनों का उल्लेख किया, वे विचारणीय जरूर हैं- पहला--मुसलमान है तो आतंकवादियों से मिला हो सकता हैं, दूसरा--गरीब है तो चोर हो सकता है और तीसरा यह कि स्त्री है तो कुछ हासिल करने के लिए देह का उपयोग कर सकती है। शरद यादव के इस कथन से ही बात करें तो खुद यादव का स्मृति ईरानी पर विवादित कथन 'आप क्या हैं, मैं आपको जानता हूं' के संबंध में उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि उनकी कही तीसरी बात में उन्हें ही क्यों नहीं घेरा जा सकता? अन्यथा जो सन्दर्भ चल रहा है उनसे ध्वनियां लोग अपने हिसाब से निकालेंगे ही और ऐसे में स्त्री की अस्मिता ताक से परे नहीं हो सकती।
स्त्री को 'सौन्दर्य' से जब तक जोडऩा बन्द नहीं होगा तब तक उसे असल बराबरी हासिल हो ही नहीं सकती। क्योंकि यह सोच उच्चवर्गीय पुरुष मानसिकता की ही है। यह बात शरद यादव को समझ नहीं रही तो आश्चर्य ही है।

17 मार्च, 2015

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