राजस्थान विधानसभा के पिछले चुनावों में करारी हार झेलने के बाद कांग्रेस हाइकमान ने मिट्टी के माधो प्रदेशाध्यक्ष डॉ. चन्द्रभान को हटा कर राज्य की कमान सचिन पायलट को सौंप दी। सधे तरीके से अपनी बात कहने वाले सुलझे सचिन पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की पसंद हैं। राहुल लगातार इस कोशिश में हैं कि वे पार्टी को नये तौर-तरीकों से चलाएं और यह भी कि उन्हें इनमें बाधा अधिकांश पुराने पार्टी वफादार लगते आए हैं!
राजस्थान के सन्दर्भ से बात करें तो पायलट को यहां अपने तौर-तरीकों से काम करने की छूट पद ग्रहण के साथ ही मिली हुई है। किसी बड़े पार्टी दिग्गज का उनके काम-काज में कोई खास हस्तक्षेप अभी तक देखने में नहीं आया। यह बात अलग है कि उन्हें जब यह जिम्मेदारी मिली, तब पार्टी अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी। इसी के चलते उनके नेतृत्व में पिछले वर्ष के लोकसभा चुनावों में पार्टी को राज्य में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। यहां तक कि अपने चुनाव क्षेत्र अजमेर में पैठ बना चुके खुद सचिन पायलट भारी मतों से चुनाव हार गये। सप्रंग-दो की सरकार ने जिस तरह अपनी साख गंवाई और उसे भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी ने अपने नेतृत्व में भुनाया, ऐसे माहौल में सचिन की जगह अन्य कोई भी पार्टी अध्यक्ष होता तो परिणाम कमोबेश यही होते।
जैसी की भारतीय चुनावी राजनीति हो चुकी है, इसमें वोट देने के सकारात्मक कारण कम ही देखे गये हैं। अधिकतर चुनावों के परिणाम ऊब के होते हैं यानी जो राज कर रहा है उससे निराश हैं तो जो पार्टी उसे चुनौती देने में सक्षम हो उसे चुन लेना-बिना इस पर विचार किये कि उस पार्टी के तौर-तरीके भी पहली पार्टी से भिन्न नहीं हैं।
कांग्रेस के पास फिलहाल केन्द्रीय नेतृत्व खुद सुलझा हुआ नहीं है। पार्टी के प्रथम पंक्ति के अधिकतर नेता नेहरू-गांधी परिवार की बैसाखियों के आदी हैं। सोनिया अस्वस्थ रहने लगी हैं तो चालीस पार के राहुल अभी तक परिपक्व होने की प्रक्रिया में हैं। ऐसे में आम-अवाम का मोदी राज से मोहभंग होने तक इन कांग्रेसियों के पास उडीक करने के अलावा कोई चारा नहीं है!
राजनीति जिस तरह विचारहीन हो गई है उसमें कोई कांग्रेसी कब भाजपाई हो जाता है और कोई भाजपाई कांग्रेसी हो जाता है, इसमें ऊहा-पोह की भी अब बाधा नहीं होती। बस निजी तात्कालिक लाभ दिखने चाहिए। ऐसी परिस्थितियों और खास तौर पर राजस्थान में कांग्रेस जिस गत को प्राप्त हो चुकी है उसमें पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह तो दूर की बात कोई हरकत भी बनाए रखना सचिन पायलट के लिए कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। इसके लिए ऐसे समय में जब सरकारें उनके पास लगभग नहीं ही हैं तब तो संगठन को प्रतिष्ठ किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसी चेष्टाएं सचिन पायलट में नहीं देखी जा रही हैं।
उदाहरण के लिए उनकी इस बीकानेर यात्रा को ही लें कि जब कल वे सर्किट हाउस पहुंचे तो इनके इर्द-गिर्द
'होबा'
गत को प्राप्त तथाकथित दिग्गज नेता ही काबिज रहे। इन 'होबाओ'
में यह कशमकश भी देखी गई कि सचिन के बिल्कुल बराबरी में कौन बैठे? सचिन के इर्द-गिर्द बैठे इन सभी को पिछले चुनावों में जनता नकार चुकी है। हां, पार्टी के शहर अध्यक्ष यशपाल गहलोत और देहात अध्यक्ष लक्ष्मण कड़वासरा कार्यकर्ताओं की भीड़ का हिस्सा बने रहे। जबकि होना यह चाहिए कि संगठन के नेता होने के नाते सचिन कड़वासरा और गहलोत को अपने दोनों तरफ बिठाते यानी दिखावे के समय या मीडिया के लोग और उनके कैमरों के सक्रिय होने के समय पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष ने स्थानीय इकाइयों के अध्यक्षों को कोई तवज्जो नहीं दी। कांग्रेस पार्टी का यह ढर्रा चिरपरिचित है। ऐसे में यह कैसे मान लें कि सचिन पायलट पार्टी में नया उत्साह फूंकने को प्रयत्नरत हैं या वे कुछ नये तरीके से पार्टी को चलाना चाहते हैं।
12 मार्च, 2015
No comments:
Post a Comment