Wednesday, February 4, 2015

दिल्ली की उम्मीदें और आम-अवाम की नियति

कल मुझे इक ख्वाब आया
दिल्ली में सैलाब आया
डिजाइनर जैकेट बह गया
गीले-कुचैले मकानों पर
मफलर ही टंगा रह गया।
उक्त पंक्तियां वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा ने आज सवेरे अपनी फेसबुक वाल पर पोस्ट कीं। दिल्ली विधानसभा चुनावों के रंग-ढंग, दौड़ में शामिल दलों के तौर-तरीके, उनके नेताओं की भाव-भंगिमाएं आदि-आदि के साथ चुनावी सर्वेक्षण भी परिणामों की करवट का आभास करवाने लगे हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स के राजनीतिक सम्पादक विनोद शर्मा की सूझ-बूझ सटीक विश्लेषण देती रही है। अपनी बात को काव्यमयी तरीके से कहने की उनकी पोस्ट यह पहली ही देखी गई। वैसे भी शर्मा उन संजीदा पत्रकारों में से हैं जो मोदी के तौर-तरीकों को लोकतांत्रिक नहीं मानते। यद्यपि वे हमेशा ही अपनी बात को बेधड़क कहते रहे हैं लेकिन, आज उन्होंने अपनी बात बजाय-अभिधा के लक्षणा में कही तो लगता है वे पूरे इतमीनानी मिजाज में हैं। डिजाइनर जैकेट मोदी और भाजपा की प्रतीक है तो मफलर आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल का।
2011 में अन्ना आन्दोलन की शुरुआत से हीविनायक ने अन्ना में बहुत उम्मीदें देखीं और ही अरविन्द केजरीवाल के तौर-तरीकों में, बल्कि किरण बेदी की छवि का क्षरण अन्ना आन्दोलन के दौरान ही हुआ। देश की राजधानी दिल्ली की राजनीति के बहाने पूरे देश की राजनीति का प्रतिबिम्ब दिल्ली में देखने की खैचल हम कर सकते हैं। 7 फरवरी को दिल्ली विधानसभा के लिए मतदान और 10 फरवरी को परिणाम घोषित होने हैं। चुनावी माहौल से हासिल आत्म-विश्वास में केजरीवाल कहने लगे हैं कि पिछली 14 फरवरी को उन्होंने अधूरे बहुमत के चलते अपनी सरकार का इस्तीफा सौंपा और इस 15 फरवरी को जनता उन्हें पूर्ण बहुमत के साथ पुनः शासन सौंपेगी।
मई, 2014 से केन्द्र में काबिज मोदी अपनी पार्टी के लिए अनुकूलता बनने की उम्मीद में दिल्ली के चुनावों को टालते रहे, आखिर उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप पर ही चुनावी कार्यक्रम घोषित हुआ।
सितम्बर, 2013 से मोदी जिस अश्वमेध के घोड़े पर सवार होने का भ्रम पाले हैं उसकी लगाम दिल्ली में खिंचने का भय उन्हें सताता रहा है। इससे बचने के लिए उनके द्वारा किए जा रहे सभी उपाय बजाय अनुकूलता बनाने के प्रतिकूलता ही बढ़ाते रहे। किरण बेदी को उतारना और उनका तिलिस्म चलने का आभास इसका बड़ा प्रमाण है। वैसे मोदी सितम्बर, 2013 से आम-अवाम को भ्रमित करने के अलावा कर ही क्या रहे हैं। कांग्रेस भी इन चुनावों में मात्र उपस्थिति दर्ज करवाती दीख रही है। इस प्रतिकूल समय में उसने अपने एक संजीदा अजय माकन को जरूर दावं पर लगा दिया है। नाकारा साबित कांग्रेस के विकल्प के तौर पर अपने को प्रतिष्ठ कर पाने के अलावा कोई उपलब्धि मोदी की भी नहीं गिनाई जा सकती है। दिल्ली के चुनावों में भाजपाइयों की हताशा और हांपणी इसकी गवाह है।
आम-अवाम केवल कांग्रेस से बल्कि भारतीय जनता पार्टी से भी नाउम्मीद है, लेकिन कुएँ और खाईं के दो ही विकल्प हों तो बारी-बारी से एक को चुनना मजबूरी हो जाता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी उम्मीदों को हरा करने में तो सफल होती दीखती है लेकिन उन पर खरी भी उतरेगी, लगता नहीं है। क्योंकि उसकी कार्ययोजना इसी भ्रष्ट व्यवस्था के अन्तर्गत ही बनी बनाई है। दूसरी बड़ी बाधा दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना है जिसके चलते इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता, ऐसे में अपनी पिछली गलतियों से सबक और अधकचरी सोच में परिपक्वता लाकर केजरीवाल कुछ करना भी चाहेंगे तो मोदी जैसे मन के मैले शासक उनके लिए प्रतिकूलता पैदा कर सकते हैं। दिल्ली के शासन में केन्द्र का बड़ा हस्तक्षेप गृहमंत्रालय के माध्यम से हो सकता है जिसे मोदी से कुछ उदार राजनाथसिंह देख रहे हैं, ऐसे में हो सकता है वे मोदी के दिल्ली ऐजेन्डे को ज्यों का त्यों लागू नहीं होने दें।
केजरीवाल के लिए दूसरी बड़ी चुनौती दिल्ली की जनता ही हो सकती है जो केजरीवाल से उम्मीदें इतनी लगा बैठी है जिसे साधना उनके लिए लगभग नामुमकिन होगा। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि दुबारा मुख्यमंत्री बनने पर केजरीवाल जनता को इतना निराश नहीं होने देंगे कि देश का आम-अवाम कांग्रेस और भाजपा को ही अपनी नियति मानने लगे।
उम्मीद करते हैं कि इन चुनावों में भी नोटा का वोट प्रतिशत बढ़ने का सिलसिला जारी रहेगा।

4 फरवरी 2015

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