Tuesday, February 10, 2015

‘अहंकार तो भैया दशानन का भी नहीं रहा’

सुबह 9.30 बजे फेसबुक पर उक्त पोस्ट जाने माने विचारक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बुजुर्गों के हवाले से की। अग्रवाल की यह पोस्ट सम्भवत: नरेन्द्र मोदी के लिए है। कहा जाता रहा है कि अमित शाह वे चुनावी पारस हैं जिन्होंने अब तक तीस चुनावों की कमान सम्भाली और तीसों में ही उन्होंने सफलता अर्जित की। लेकिन, आज जब उनकी बेटी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथसिंह की मौजूदगी में गुजरात के गांधीनगर में ससुराल के लिए विदा हो रही होंगी। उसके साथ ही शाह का चुनावी पारस भी विदा हो लेगा।
दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों के जो रुझान आ रहे हैं उससे लग रहा है आम आदमी पार्टी तीन-चौथाई बहुमत की ओर बढ़ रही है, जिसे सही मायनों में सूपड़ा साफ होना कहते हैं वह कांग्रेस का हो रहा है और भाजपा अपूर्ण सफलता के मात्र नौ महीने बाद बहुत ही दयनीय हालात को हासिल हो रही है। मतदान बाद के सर्वे भी मई, 2013 के लोकसभा मतदान के बाद से ज्यादा अतिक्रमित हो रहे हैं। सात फरवरी को मतदान की सुबह दो-एक खबरिया चैनलों के अलावा अन्य सभी चैनल मतदाता का रुख बदलने के लिए चार-छह घंटे तक भाजपा की बढ़त बताने का जो धर्मच्युत काम कर रहे थे लगता है उस दौरान जनता ने अपने-अपने टीवियों को सचमुच बुद्धू बक्सा मान लिया था।
संभवत: भारतीय जनता पार्टी से बड़ी गलती हो गई। यह गलती उन्होंने अपने इक्के नरेन्द्र मोदी और चुनावी पारस अमित शाह को दावं पर लगाकर की। हालांकि उन्हें इसका अहसास जैसे ही हुआ, उन्होंने बलि का बकरा ढूंढ लिया और इसमें भी उनके लिए अनुकूलता यह बनी कि बकरा यानी किरण बेदी खुद ही बलि होने को सहर्ष तैयार हो गईं। ये पंक्तियां लिखे जाने तक खुद किरण बेदी अपनी कृष्णानगर सीट पर पीछे चल रही हैं उम्मीद करनी चाहिए कि दोपहर होते-होते वह इस हश्र को हासिल न हो।
यह नतीजे देश की जनता के लिए इसलिए भी अच्छे साबित हों कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कम-से-कम अपनी सफलताओं के मद से अब तो बाहर आएं और जो-जो उम्मीदें देकर वे अपने चरम आकांक्षी प्रधानमंत्री पद तक वे पहुंचे हैं, कम-से-कम उन्हें अब तो लगे कि अपनी स्वांगी मुद्राओं से बाहर आना चाहिए, अपनी इनायती नजरों में कनखियां लाएं और बजाय अंबानी-अडानियों के वे असल आम-अवाम की सुध लें। अन्यथा जनता भले ही अपने वोट का महत्त्व न समझने लगी हो, वोट की ताकत वह भलीभांति जान चुकी है। इस जनता ने लोकसभा में कांग्रेस को जिस बुरी स्थिति में पहुंचाया, दिल्ली विधानसभा में उससे भी बदतर मुकाम तक वह भारतीय जनता पार्टी को पहुंचाती लग रही है।
रही बात आम आदमी पार्टी के लिए तो इसके लिए विनायकके इसी चार फरवरी के सम्पादकीय का अंश पुन: पढ़ सकते हैं।
आम-अवाम न केवल कांग्रेस से बल्कि भारतीय जनता पार्टी से भी नाउम्मीद है, लेकिन कुएं और खाई के दो ही विकल्प हों तो बारी-बारी से एक को चुनना मजबूरी हो जाती है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी उम्मीदों को हरा करने में तो सफल होती दीखती है लेकिन उन पर खरी भी उतरेगी, लगता नहीं है। क्योंकि उसकी कार्ययोजना इसी भ्रष्ट व्यवस्था के अन्तर्गत ही बनी बनाई है। दूसरी बड़ी बाधा दिल्ली का राष्ट्रीय राजधानी होना है जिसके चलते इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। ऐसे में अपनी पिछली गलतियों से सबक और अधकचरी सोच में परिपक्वता लाकर केजरीवाल कुछ करना भी चाहेंगे तो मोदी जैसे मन के मैले शासक उनके लिए प्रतिकूलता पैदा कर सकते हैं। दिल्ली के शासन में केन्द्र का बड़ा हस्तक्षेप गृहमंत्रालय के माध्यम से हो सकता है जिसे मोदी से कुछ उदार राजनाथसिंह देख रहे हैं, ऐसे में हो सकता है वे मोदी के दिल्ली ऐजेन्डे को ज्यों का त्यों लागू नहीं होने दें।
केजरीवाल के लिए दूसरी बड़ी चुनौती दिल्ली की जनता ही हो सकती है जो केजरीवाल से उम्मीदें इतनी लगा बैठी हैं जिसे साधना उनके लिए लगभग नामुमकिन होगा। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि दुबारा मुख्यमंत्री बनने पर केजरीवाल जनता को इतना निराश नहीं होने देंगे कि देश का आम-अवाम कांग्रेस और भाजपा को ही अपनी नियति मानने लगे।

10 फरवरी, 2015

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