Wednesday, February 18, 2015

बीकानेर : विरासत से पहले धरोहर संभालें

पर्यटन पर बीकानेर आए देशी-विदेशी वास्तुकारों के एक समूह के साथ 'बीकानेर विरासत एवं संरक्षण' पर एक गोष्ठी कल अजित फाउण्डेशन ने आयोजित की गई। उक्त वास्तुकारों के अतिरिक्त इस गोष्ठी में शहर के उन कुछ लोगों ने भी हिस्सा लिया जो अपने शहर पर मोहित हैं।
जैसा कि मालूम हो पिछले एक दशक से ज्यादा समय से यहां की हवेलियों को संरक्षित और बचाए रखने की मुहिम चलाई जा रही है। इस गोष्ठी को भी लगभग उसी विरासती संरक्षण तक ही सीमित रखने की कोशिश की गई। चूंकि विरासत धरोहर में फर्क होता है और हवेलियां विरासत का हिस्सा हैं इसलिए उनके साथ उनके मालिकों द्वारा किया जाने वाले किसी भी तरह का सलूक अन्तत: नहीं रोका जा सकता। बैठक में आम रोष यह था कि शहर की हवेलियों को तोड़ा जा रहा है या हवेलियों के चेहरे के दुलमेरा लाल बालू पत्थर के काम को उतार कर बेचा जा रहा है। कोई हवेली जिसकी विरासत है उसे पूरा हक है कि वह अपनी जरूरत के अनुसार उसको व्यवहार में ले, तोड़े या उसके चेहरे को उतार कर बेचे। हां, कुछ देशों के कुछ शहरों की भांति यहां की सरकार ही यह तय कर ले कि इस शहर को जैसा है वैसा ही रखना है, हवेलियों जैसी निजी विरासतों को मुआवजा देकर धरोहर में शामिल करें। धरोहर घोषित इस तरह के शहरों में फिर घरों, हवेलियों के साथ गलियां, सड़कें, पानी निकासी की सुविधा से लेकर शहर की पूरी बनावट को ही संरक्षित किया जाता है। इस तरह की प्राथमिकता आज-कल की सरकारों की होगी, नहीं लगता और किसी निजी समूह के बस की बात तो हरगिज नहीं।
उक्त गोष्ठी में देश के अन्य सैकड़ों शहरों की तरह इस शहर को छोटी काशी कहने का राग भी अलापा गया और आत्मुग्धता में इसे हजार हवेलियों का शहर भी बताया गया। जबकि वस्तुस्थिति यह कि जिन्हें सचमुच हवेली कहा जा सके वैसे भवन तो शहर में एक सौ भी नहीं होंगे! किसी तरह खींचताण करें तो भी यह आंकड़ा तीन सौ नहीं पहुंचेगा। हवेली शब्द की व्युत्पत्ति हवा से हुई। हवेली यानी हवादार भवन। इसके साथ इसमें कुछ वास्तु सम्बन्धी मानक भी माने जाते रहे हैं। कम से कम वह दो मंजिला भवन जिसमें हों बरामदें, दोनों तरफ दीवानखाने, आंगन, आंगन के दोनों ओर रसोई, परिण्डे, पूजा स्थल-फिर सामने के बरामदे के बाद कमरे, ऐसे ही कुछ निर्माण ऊपर के तय होते हैं। इन हवेलियों को इस तरह बनाया जाता था कि उसके लगभग सभी हिस्सों में प्राकृतिक हवा और रोशनी पर्याप्त पहुंच सके। हवेली की अवधारणा तब की है जब बिजली का आविष्कार नहीं हुआ था या स्थानीय उपयोग तक वह नहीं पहुंची थी। हजार हवेलियों में उन मकानों को भी शामिल किया गया जिनके चेहरे पर मात्र  दुलमेरा का लाल बालू पत्थर जड़ा हुआ है। ऐसी श्रेणीबद्धता से एतराज नहीं, लेकिन ऐसे सभी घरों को हवेली तो नहीं कहा जा सकता, भले ही कुछ और विशेषण से भले ही इन्हें श्रेणीबद्ध किया जाये।
शहर को सचमुच अपना कुछ बचाना है तो कम से कम शहर की चहारदीवारी को बचा लें जिसे परकोटा या फसील भी कहा जाता है। यह परकोटा केवल शहर की असल धरोहर है बल्कि सरकार द्वारा संरक्षित भी है और अभी हाल में राजस्थान उच्च न्यायालय ने इन परकोटों को बचाये रखने की हिदायत भी सरकार को दी है।
आजादी बाद के इन सड़सठ सालों में सरकारी संरक्षण के बावजूद परकोटे को खुर्द-बुर्द किया जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि शहर का लगभग आधा परकोटा अपना अस्तित्व ही खो चुका है! सरकारी कायदा तो यह है कि इस परकोटे के पांच-पांच मीटर दोनों तरफ कोई निर्माण नहीं हो सकता। लेकिन, अधिकांश जगह इस परकोटे का नामोनिशान खत्म कर मकान बना लिए गये हैं। परकोटे का जो हिस्सा बचा है उसे देखने से पता चलता है कि इस पर अन्दर की ओर पर्याप्त चौड़ाई का गलियारा भी है जिस पर शहर की सुरक्षा में लगे घुड़सवार और ऊंट सवार बराबर गश्त करते थे। यही नहीं, इन रक्षकों की जरूरत के हिसाब से जगह-जगह विश्राम गृह भी बने हुए हैं। कल्पना करें कि यदि इस परकोटे को हम बचाए रखते तो शहर में आने वाले पर्यटकों के लिए परकोटा-परिक्रमा जैसे आयोजन आकर्षण के स्थाई हेतु बनते। खैर, अब भी देरी नहीं हुई, जितना बचा है उतने को संभालने और संरक्षित रखने की मुहिम चलाएं तो हवेलियों रूपी विरासत को भले ही बचा पाएं, परकोटे रूपी धरोहर को जरूर बचा सकते हैं। यह आसान इसलिए भी है सरकार खुद इसके लिए केवल कानूनन प्रतिबद्ध है बल्कि इसके लिए वित्तीय प्रावधान भी होते हैं।

18 फरवरी, 2015

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