मांग के लिए एक जुमला शहर में काफी सुना जाता है। जो है तो हकीकत से परे लेकिन कहने वाले की बात का मर्म बहुत सटीक सम्प्रेषित कर देता है। 'पिस्टल का लाइसेंस चाहिए तो तोप का मांगना पड़ता है' जबकि तोप का लाइसेंस तो मिलता ही कहां है। जुमला-जुमला ही होता है। ऐसे ही चांद को पाने की हसरत की बात कविमन के लोग करते रहे हैं। लेकिन यह हसरत चांद पर जाकर तो पूरी की जा सकती है लेकिन उसके बगलगीर नहीं हो सकते।
आज इन बिम्बों से बात शुरू इसलिए करनी पड़ गई कि हमारे शहर बीकानेर के लोग भले तो हो सकते हैं पर चतुर हरगिज नहीं। इसीलिए जो शहर आजादी के समय सूबे में तीसरे नम्बर का था वही अब किस पायदान पर उतर बैठा बता नहीं सकते। एक तो हम मिलकर यही तय नहीं कर पाते कि हमारी असल समस्याएं क्या हैं और उनके व्यावहारिक समाधान क्या हो सकते हैं, दूसरा यह कि हबीड़े में बढ़ते-फैलते इस शहर की जरूरतें क्या होंगी।
सूरसागर कभी बड़ी समस्या था हालांकि अब समस्या तो नहीं रहा है लेकिन अव्यावहारिक समाधान के चलते बोझ जरूर बन गया है। हर महीने लाखों रुपये और लाखों गैलन पानी हम पिछले आठ वर्षों से जाया कर रहे हैं। लेकिन इसका हासिल क्या! झील है तो लबालब रहे तो आनन्द है नहीं तो जो हो रहा है वह झींकने के सिवाय क्या। समाधान के समय यह सोचा ही नहीं कि इतनी बड़ी झील को बिना प्राकृतिक स्रोत के भरी भी रख सकेंगे कि नहीं! अब मजबूरी यही है कि इस रूखे-सूखे सूरसागर से सन्तोष कर लें।
ऐसा ही मामला हवाई सेवा का है। बिना जरूरत समझे लाखों खर्च करके नाल में टर्मिनल बनवा लिया। अब हवाई सेवा की उडीक में हैं। जबकि यह महंगी सेवा, हमसे हर मामले में तीन गुने जोधपुर और पांच-छह गुने जयपुर में ही हिचकोले खाती चल रही है। जोधपुर से दो-एक सेवाओं को छोड़ शेष सभी तथा जयपुर की वह अधिकांश सेवाएं बंद कर दी गई हैं जिनके लिए सवारियां नहीं मिलती। कोई भी एयर लाइन यदि जैसे-तैसे सेवाएं शुरू भी कर देगी तो क्या गारन्टी है कि उन्हें रोजाना की न्यूनतम सवारियां मिल जायेंगी। नहीं मिलेगी तो निजी की तो बात दूर सरकारी सेवाएं भी ज्यादा दिन घाटे में नहीं चल पाएंगी।
ऐसा-सा ही मामला कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्या का है। देखें तो आज दिन इस शहर के लिए इस से बड़ी समस्या कोई नहीं। अब तो नित-प्रतिदिन इसे भुगत ही रहे हैं। लेकिन इसके समाधान की मंशा हम अभी तक नहीं बना पाए हैं। नेता हैं वह तो जनता यदि अंगूठा चूसना चाहती है तो अंगूठा मुंह में दे देंगे और बीटणी चूसना चाहती है तो बीटणी। लेकिन अंगूठों-बीटणी से कभी पेट भरा है क्या? शहर के कुछ संजिदा और हीक-छड़ींदे किस्म के लोग कडिय़ा इस भय से पकड़े हैं कि छोड़ेंगे तो गिर पड़ेंगे या इसलिए कि अपनी बात पर अड़े नहीं रहे तो हेकड़ी का क्या होगा। शेष अवाम चून में इनके मुखातिब हो केवल भुगतने को मजबूर है। रही सही कसर उच्च न्यायालय के नये आदेश ने पूरी कर दी। अन्डर या ओवरब्रिज को न्यायालय ने अव्यावहारिक क्या बताया कि शुरू हो लिए बाइपास का पुराना राग अलापने।
चलो किसी तरह आभासी ही सही बाइपास रूपी चांद को आपके बगलगीर करने की बात मान भी ली गई तो क्या फिर ऐसी समस्याओं से हमेशा के लिए मुक्त हो जाएंगे? समाधान व्यावहारिक विकल्पों में ही ढूंढऩा होगा और यह भी देखना होगा कि बाइपास बन ही गया तो क्या इस तरह की समस्याओं से कम से कम अगले पचास वर्षों के लिए मुक्त हो लेंगे ? और यह भी कि बाइपास की 'मांग' हमारी ठीक वैसे ही पूरी हो लेगी जैसी हम चाहते हैं। इस समाधान की कीमत हम किन-किन रूपों में चुकाएंगे थोड़ा कभी इस पर भी विचार कर लें।
कम-से-कम अब तो उस समय को आया मान लेना चाहिए कि कोटगेट और सांखला फाटकों के किसी अधिकतम व्यावहारिक समाधान पर एकमत होकर इसे शीघ्रातिशीघ्र हासिल करें।
22 जनवरी, 2015
5 comments:
....एक तो हम मिलकर यही तय नहीं कर पाते कि असल मस्याएं क्या है और उनके व्यावहारिक समाधान क्या हैं...यह इस लेख कीpunchlinechline है।
समस्याएं
Punchline
मूल्यवान शब्दों का जोड़। पूर्णतया वास्तविकताओ से भरा ब्लॉग।
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