Tuesday, January 27, 2015

दुनिया का दादा दिल्ली में

पिछले तीन दिन से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दिल्ली में हैं। सऊदी अरब के सुल्तान का देहान्त होता तो वे आज ताजमहल आगरा भी गये होते। आगरा की बात आई तो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम से चला एक चुटकला याद हो आया। 'आगरा' के अलावा कोई सन्दर्भ नहीं पर फिर भी दादा पर बात करने से पहले लगा कि इसे कह देना चाहिए।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू का आगरा जाना हुआ तो उन्हें लगा कि तब देश के सबसे बड़े वहां के प्रसिद्ध मानसिक चिकित्सालय भी हो आना चाहिए। जब वे चिकित्सालय के गलियारे से गुजर रहे थे तो उन्हें एक व्यक्ति जंगले के पीछे खड़ा दिखा। रुक गये-वह भी उनकी आंखों में आंखें डाल कर देखने लगा। कुछ क्षणों के इस अंखियन संवाद के बाद नेहरू को लगा कि कुछ बोलना चाहिए तो कह बैठे, 'मैं जवाहर लाल नेहरू हूं' जवाब जो मिला उसकी उम्मीद सजे-धजे नेहरू को नहीं थी। उस ठीक होते मनोरोगी ने कहा, 'यहां गये हो, जल्दी ठीक हो जाओगे, यहां आया तब मैं भी यही कहता था' नेहरू मुसकरा कर आगे निकल लिए। कहा जाता है देश का सबसे बड़ा वह चिकित्सालय भी अब खिसक कर रांची चला गया है।
बात ओबामा की यात्रा पर करनी थी उसी पर लौट आते हैं। इस यात्रा का सन्दर्भ उस चुटकले से हरगिज जोड़ें, जुड़ेगा भी नहीं। बराक ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति हैं और प्रधानमंत्री मोदी और ओबामा में एक बड़ी समानता है कि दोनों ही ने बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाकर वोट बटोरे थे। बराक को दो साल बाद ही फिर जनता के पास वोटों के लिए जाना है और कहते हैं उनके दिखाए सब्जबाग जल्दी ही सूखने लगे सो उन्हें लगने लगा है कि ज्यादा ही सूख गये तो पार्टी ही संभवत: उन्हें उम्मीदवार बनाये। अमेरिका खुद अपनी आर्थिक समस्याओं से उबर नहीं पा रहा है और खाड़ी देशों में भी वैसी अनुकूलता वे बना नहीं पाये जैसी पहले हुआ करती थी।
सोवियत रूस के विघटन के बाद यह लगने लगा था कि अमेरिका के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है पिछले पचीस वर्षों से वह अपनी भंगिमाएं भी वैसी बनाए रखने की कोशिश में है। लेकिन नये वैश्विक बाजार में वैसी स्थितियां रही नहीं। चीन-कोरिया जैसे देश उसकी अंटी को टाइट किए हुए हैं। साम्यवादी चीन तो पूरी 'बनिया बुद्धि' से अपने को मजबूत बनाए हुए है और न्यूनतम गुणवत्ता की लाइन पर दृढ़ता से खड़ा रह कर विश्व बाजार में केवल अमेरिका बल्कि गुणवत्ता की उच्चतम लाइन पर खड़े पड़ोसी जापान पर भी भारी पड़ रहा है।
नरेन्द्र मोदी विकास के सपनों को दिखा यहां तक पहुंचे हैं और उन्हें लगता है कि विश्व बाजार पर किसी तरह पकड़ बना कर विकास की सवारी को कायम रख पाएंगे। लेकिन वे भूल रहे हैं कि चीन जैसे देशों के बीच बाजार में जगह बनाना आसान नहीं है हम अपने देश में उत्पाद और सेवाओं, दोनों क्षेत्रों में निचले स्तर की गुणवत्ता लाइन पर दृढ़ता कायम रख पाएं, वैसी मन:स्थिति को भी हासिल कर पाएंगे, फिलहाल नहीं लगता। मोदी इसे नजर अन्दाज कर उस 'बावळे' की भूमिका में नजर रहे हैं जो बिना अपनी क्षमता का आकलन किए प्रत्येक बाहरी में उम्मीदें देखने लगता है।
दो दिनों से खबरिया चैनलों पर बराक को जब-जब मोदी के साथ दिखाया जा रहा है तब-तब ऐसा ही लग रहा है कि वह मोदी पर लट्टू हैं। दरअसल मामला उलट है-बराक समझ बूझ कर आएं हैं कि मोदी को लट्टू बनाया कैसे जा सकता है। बराक को लगता है कि दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ भारत को भी उल्लू बनाए रखने में ही उसकी जियारी है। भारत को वह बड़े बाजार के रूप में ही देख रहा है। जबकि भारत का विकास आज की अर्थव्यवस्था में अच्छा दुकानदार होने में है जो अपना माल दूसरे देशों में खपा सके। प्रतिस्पर्धा तगड़ी है तो अन्य व्यापारी देश भी तेल लगाए पहलवान की भूमिका में हैं कि वे सफल दुकानदार कैसे बन सकते हैं। बराक भी इसी भूमिका में सफल होने आए हैं।
रही बात मनमोहन सरकार द्वारा खुद को दावं पर लगाकर किए गए परमाणु संधि करार को आगे बढ़ाने की तो मोदी इस मामले में कांग्रेस से ज्यादा उदार साबित हो रहे हैं तो अमेरिका हमें उल्लू बनाने में सफल। नई संधि के तहत दुर्घटना होने पर परमाणु संयंत्र लगाने वाली अमेरिकी कम्पनियों पर तो मुकदमा हो सकेगा और ही उन्हें मुआवजा देना होगा।
वैसे भारत 2 दिसम्बर, 1984 की रात को घटी भोपाल गैस त्रासदी, चार हजार मौतें और चालीस हजार प्रभावितों के साथ आज तीस साल बाद भी पैदा होते अपंग बच्चों के लिए दोषी उक्त अमेरिकी कम्पनी पर मुकदमा करके भी कुछ हासिल भले ही कर पाया हो लेकिन चतुर अमेरिका ने मोदी सरकार के साथ की इस नई संधि से भारत में लगने वाले परमाणु संयंत्र पर मुआवजा तो दूर मुकदमे का हक भी छीन लिया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में गुणवत्ता में उच्चतम लाइन पर कायम जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में ग्यारह मार्च 2011 में हुई दुर्घटना के बाद के परिणाम जापान आज तक भुगत रहा है।
उल्लू बनाने के इस दौर में आम-अवाम को उल्लू बनाकर पदासीन हुए नरेन्द्र मोदी से हो सकता है बराक ओबामा अपना उल्लू सीधा कर ले जाएं। 'विकास गेले' हुए मोदी से ऐसा हो जाए तो आश्चर्य नहीं है।
27 जनवरी, 2015


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