Saturday, January 3, 2015

शाश्वत पड़ोसी पाकिस्तान

भारत  का पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान लगभग हीक-छडिं़दे की-सी अवस्था में है। कहने को वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी एक सरकार है, और पहले रहे शासकों की तुलना में वर्तमान प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संजीदा भी माने जाते हैं। बावजूद इसके पाकिस्तान पड़ोसियों के अनुकूल है खुद के। आपे में होने का बड़ा प्रमाण पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल की हाल ही की घटना है। इस घटना से पहले यह माना जाता था कि पाकिस्तान से पनपने वाली आतंकी गतिविधियों को वहां की सेना की शह होती है। लेकिन आर्मी स्कूल की घटना से लगता है यह आतंकी अब सेना के ताबे से भी बाहर होने लगे हैं। हो सकता है पाकिस्तान के पश्चिमी सीमाप्रान्त इलाकों के सम्बन्ध में यह सही हो लेकिन जो आतंकवादी संगठन भारत के लिए सक्रिय हैं, उन्हें पाकिस्तानी सेना की शह पूर्ववत जारी है।
इस बात की पुष्टि गये वर्ष के आखिरी दिन अरब सागर में घटित ऑपरेशन करता है। इस घटना को भारतीय सेना ने कल उजागर किया जिसमें बताया गया कि गोला-बारूद से भरी एक नौका में सवार चार आतंकी मुम्बई की 26/11 जैसी ही घटना को गुजरात में कहीं अंजाम देने के लिए रहे थे। भारत के कोस्ट गार्ड सतर्क थे सो इस दहशत से देशवासी बच गये। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार हो या सैनिक शासन, इस तरह की गतिविधियां पिछली सदी के आठवें दशक से जारी हैं। लग यही रहा है कि 1971 में हुए पाकिस्तान के बंटवारे को वहां की जनता भले विस्मृत करने लगी हो पर वहां की सेना में यह फांस कई पीढिय़ों बाद भी कायम है। हो सकता है पाकिस्तानी सेना 1971 के युद्ध में भारत से अपनी हार भले ही भूल गई हो लेकिन पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश के रूप में उदय को वह अभी तक नहीं भूल पायी है। इस बंटवारे के लिए सेना खुद से ज्यादा वहां के लोकतान्त्रिक शासकों को जिम्मेदार मानती आयी है। इसीलिए भारत को लेकर वहां की सेना वहां के लोकतान्त्रिक शासकों को हमेशा अनदेखा करती रही है।
बांग्लादेश का बदला लेने के लिए वहां की सेना अपनी हार के बाद से ही बेचैन रही है। उसकी इस बेचैनी को भारत के पंजाब में थोड़े समय बाद गुंजाइश भी मिल गई। पिछली सदी के आठवें दशक में ही उसने भारत के पंजाब में अलगाववादियों को हवा देनी शुरू कर दी और देखते ही देखते एक समय ऐसा आया कि लगने लगा कि पंजाब तो देश से गया। पाठकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि तब तक कश्मीर में आतंकवाद नाम की कोई समस्या नहीं थी, यानी कश्मीर क्षेत्र के मुस्लिम बहुल होने के बावजूद पाकिस्तान को तब कोई गुंजाइश वहां नहीं दिखी। जब सिख बहुल पंजाब को पाकिस्तानी सेना ने लगभग अस्थिर कर दिया था तब भारत सरकार ने अच्छे-बुरे कैसे भी हथकण्डे अपनाकर पंजाब को मुख्यधारा में वापस लिया।  मगर तब तक पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर में गुंजाइश बना ली जिसे हमारा देश आज भुगत रहा है।
1999 में करगिल में घुसपैठ का समय हो या 2008 का 26/11 मुम्बई हमला या फिर हाल ही में 31-12-2014 का पोरबन्दर में घुसपैठ का हुआ असफल प्रयास-इन तीनों ही समय पाकिस्तान में चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकारें थीं। करगिल घुसपैठ के समय नवाज़ शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे, 26/11 के समय वहां युसूफ रजा गिलानी भी चुन कर बने प्रधानमंत्री थे और इसी 31 दिसम्बर की घटना के समय फिर नवाज़ शरीफ हैं। यह तीनों घुसपैठें बिना वहां की सेना की शह और मदद के संभव नहीं थी और युद्ध में बदली करगिल घुसपैठ से तो जाहिर ही हो गया था कि वह आतंकियों की कम और आतंकी लिबास में सेना की घुसपैठ ज्यादा थी। 13 दिसम्बर, 2001 को भारत की संसद पर हमले के समय खुद जनरल परवेज मुशर्रफ शासन हथिया चुके थे।
इन सभी घटनाओं से जाहिर होता है कि वहां के चुने हुए शासकों की भारत को लेकर मंशाएं काम नहीं आती। सेना क्या मंशा रखती है वही महत्त्वपूर्ण है।  ऐसे में भारतीय शासकों का 56 इंचीय सीना धरा रह जायेगा और ही रूठ कर बैठना काम आएगा। अच्छे और सावचेत पड़ोसी के नाते भारतीय शासकों से उम्मीद की जाती है कि वह उन सब अवसरों को हाथ से जाने दें जिससे वहां की लोकतांत्रिक जड़ें मजबूत होती हों।
'विनायक' ने पहले भी कहा है कि पड़ोस बदलने का विकल्प व्यक्ति स्तर पर हासिल है, देश स्तर पर नहीं। इसलिए देश जैसा भी है उसे समझदारी और सावचेती से परोट कर काम चलाना होगा।

3 जनवरी, 2015

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