Thursday, January 15, 2015

जरूरत पर विवेक ताक पर चढ़ बैठता है

गत सात जनवरी को फ्रांस की राजधानी पेरिस में कार्टून पत्रिका 'चार्ली हेब्डो' के मुख्यालय पर आतंकवादी हमला हुआ। दो साल पहले इस पत्रिका ने एक कार्टून में इसलाम के अंतिम पैगम्बर मुहम्मद साहब की छवि का कार्टून प्रकाशित किया था। इसलाम में बुत परस्ती को हराम माना गया है। इसलिए इसलामिक धर्मावलम्बी मुहम्मद साहब की आकृति को भी हराम मानते हैं। धर्म और आस्था निहायत व्यक्तिगत मामला है, इसलिए इसे व्यक्तिगत ही रखा जाना चाहिए। लेकिन, आदमी की फितरत है कि वह अपने और अपनों को ही बेहतर मानता है। धर्म के मामलों में ऐसा कुछ ज्यादा ही है। इसलिए दुनिया में अधिकांश खून-खराबा धर्म के नाम पर ही होता आया है। जबकि होना यह चाहिए कि पति-पत्नी भी आस्था के अपने आयाम भिन्न रख सकते हैं।
'चार्ली एब्डो' कार्टून में मुहम्मद साहब की जो छवि बनाई उसे सराहा नहीं जा सकता। उन्हें संयम बरतने की जरूरत इसलिए थी कि वह पत्रिका इसलामिक धर्मावलम्बियों द्वारा संचालित प्रकाशित नहीं है। किसी धर्म विशेष में कुछ रूढिया हैं या कुछ कमियां हैं तो उन पर विचार करने या विरोध करने का हक उसी धर्म के धर्मावलम्बियों का माना जाना चाहिए। यदि आलोचना की ऐसी गुंजाइश किसी धर्म विशेष में नहीं है तो हश्र अच्छा नहीं होता। बावजूद इसके धर्म और आस्था की पहली शर्त सहिष्णुता ही होनी चाहिए।
लेकिन इस बिना पर उन इसलामिक हमलावरों की करतूत को जायज नहीं ठहराया जा सकता, जिन्होंने गत सात जनवरी को उस कार्टून का बदला लेने के लिए 'चार्ली हेब्डो' के मुख्यालय पर ताबड़-तोड़ हमला कर बारह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। किसी धर्म और आस्था का अस्तित्व यदि खून-खराबे से बनाए रखा जा सकता है तो माना जाना चाहिए कि उसे व्याख्यायित करने वाले अनाड़ी हैं। इसलाम के जो असल बौद्धिक हैं और जिन्होंने कुरान के अध्ययन में अपना जीवन होम दिया, उनका मानना है कि इसलाम में खून-खराबे की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलाम के नाम पर जो ऐसा कर रहे हैं या करते हैं वे भटके हुए लोग हैं। ऐसों की वजह से इसलाम की ऐसी छवि बना दी गई कि लोग इसे नये सिरे से समझने को तैयार ही नहीं होते।
पेरिस की घटना के बाद जर्मनी में भी हिंसक प्रतिक्रिया हुई। इन यूरोपीय देशों में इसलामिक धर्मावलम्बियों की प्रभावी आबादी है। ऐसे में आपसी मुठभेड़ की आशंकाएं बलवती होने लगीं।
इस बीच 'चार्ली एब्डो' ने हमले  के बाद कल पहला अंक निकाल कर मुहम्मद साहब का कार्टून कवर पर फिर प्रकाशित किया, जिसमें उन्हें तख्ती पकड़े हुए दिखाया गया है जिस पर लिखा है, 'मैं दु:खी हूँ' इस पुन:प्रकाशन के अवसर के आतंकवादी घटना के खिलाफ एकजुटता दिखाना बताया गया। साठ हजार प्रतियों के संस्करण वाली पत्रिका का यह संस्करण घोषित तो तीस लाख प्रतियों का था लेकिन, मांग इतनी थी कि बढ़ाकर इसे पचास लाख कर देना पड़ा। लेकिन यह आयोजन क्या अपने मकसद को पूरा कर पाएगा? मुहम्मद साहब की छवि के साथ कवर छपे इस संस्करण को अतिवादी लोग चुनौती के रूप में लेंगे और वे अपने उन ढुलमुल धर्मावलम्बियों को इस आयोजन के आधार पर दुष्प्रेरित करने में भी सफल हो सकते हैं जो इसलाम की व्याख्या को लेकर असमंजस में थे।
इसीलिए कहा गया है कि अभियानों के जोश, नारों और उकसावे के समय विवेक की सर्वाधिक जरूरत होती है, और ऐसे समय में अधिकांश का विवेक ताक पर चढ़ बैठता है, यहां तक कि ठिठक कर विचारने की गुंजाइश भी नहीं छोड़ता। इस तरह के आयोजन कहने भर को एकजुटता दिखाने के होते हैं क्योंकि, दूसरे इसे चुनौती के रूप में लेने से अपने को नहीं रोक पाते। ऐसे में विवेक इनका भी ताक पर चढ़ बैठता है। अदृश्य शक्ति के रूप में ईश्वर की कल्पना और शक्ति स्रोत के रूप में धर्म मनुष्य ने अपनी अक्षमताओं को आड़ देने के लिए ही बनाए हैं। अक्षमता को वह सकारात्मकता से लेता तो आड़ की जरूरत ही क्या थी! नकारात्मक से सृजित साध्यों के परिणाम ऐसे ही होंगे जिन्हें सभी को भुगतना है।

15 जनवरी, 2015

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