Tuesday, November 25, 2014

बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ/स्मृति-मोदी और जसोदाबेन

'बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआयह जुमला चालीस-पैंतालीस वर्षों से सुनते रहे हैं, लेकिन इसे चरितार्थ होते अब ही देखा जाने लगा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2002 के दंगों से बदनाम क्या हुए, इस बदनामी को उन्होंने नाम का माध्यम बना लिया। उनके नाम बदनामियों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जब वे इसी बिना पर प्रधानमंत्री बन चुके हैं तब भी उनकी इस बदनाम फेहरिस्त में इजाफा होने से नहीं रुक रहा, मानों ये बदनामियां उन्हें लगातार अनुकूलता दे रही हैं। मुम्बइया फिल्म उद्योग की बात करें तो राखी सांवत एक ऐसा नाम है जिसने अपनी हैसियत बदनाम होकर ही बनाई।
मोदी मंत्रिमण्डल की अहम् सदस्य मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की हैसियत भी लगभग ऐसे ही बनती लग रही है। आजीविका के लिए संघर्ष करती स्मृति को जिस मित्र ने अपने यहां रखा उसी के पति से उसके तलाक के बाद शादी की और स्मृति मल्होत्रा से स्मृति ईरानी बनीं। भाजपा में होते हुए 2002 के दंगों के लिए मोदी को खलनायक बताया, बावजूद पार्टी में केवल बनी रही बल्कि मनांतरण के बाद यही स्मृति मोदी की मुरीद हो गईं। 2009 का लोकसभा चुनाव चांदनी चौक से हारीं और मोदी के ही गुजरात से राज्यसभा में भेजी गईं। 2014 का चुनाव स्मृति अमेठी से हारी लेकिन मोदी प्रधानमंत्री बने तो मानव संसाधन जैसे मंत्रालय के माध्यम से कैबिनेट की अहम् सदस्य बनीं। अपने नामांकन घोषणा में गलत शैक्षिक डिग्री बताने के चलते विवादों में रही।
अभी ताजा विवाद राजस्थान, भीलवाड़ा के कारोई गांव में प्रामाणित भृगु संहिता होने का दावा करने वाले नाथूलाल से मिलने पहुंचने का रहा है। कहने को तो यह उनका व्यक्तिगत मामला है लेकिन जिस संविधान की शपथ से वह केन्द्र सरकार में महती जिम्मेदारी संभाल रही हैं, इस तरह के व्यक्तिगत कार्यकलापों को प्रचारित करना और होने देना उसी संविधान की मूल भावना को ठेस पहुंचाता है। स्मृति अपने व्यक्तिगत जीवन में कुछ भी करने को स्वतंत्र है, जैसा कि वह इस मुद्दे पर सफाई में कह रही है, लेकिन इस व्यक्तिगत मुलाकात में, जो एक निजी कमरे में हुई उसके फोटो प्रचारित होना, चाहे इसमें स्मृति की भूमिका नहीं रही हो, सावचेती का अभाव तो साफ देख जा सकता है। खैर अब यह लगने लगा है कि स्मृति भी नरेन्द्र मोदी की तरह ही बदनामियों का उपयोग भी नाम की युक्ति के रूप में करने लगी हैं।
इस नये विवाद पर सोशल साइट्स पर जो अंटशंट और छीछालेदर की जा रही है, वह मर्दवादी मानसिकता की देन है, जो स्त्री को दोयम और तीसरे-चौथे दर्जे पर देखती है।
कल से एक मुद्दा और प्रचारित है जो मोदी की अधिकृत पत्नी और शादी बाद से अलग कर दी गईं जसोदाबेन से संबंधित है। जसोदाबेन ने पिछले छह महीनों से उसे मिली सुरक्षा के बारे में सूचना के अधिकार के तहत जानना चाहा है। और यह भी जसोदाबेन का पहला साक्षात्कार जो इण्डिया टुडे में रहा है, उसकी चर्चा भी सोशल साइट्स पर शुरू हुई है। कहा यहां तक जा रहा है कि कुछ प्रभावशाली लोग इण्डिया टुडे के प्रकाशन समूह लिविंग मीडिया इण्डिया  पर यह दबाव बना रहे हैं कि इस साक्षात्कार को प्रकाशित किया जाय। जसोदाबेन एक पीडि़त महिला है जिसे शादी करके छोड़ दिया गया और उनके पति ने शादी के साढ़े चार दशक बाद केवल यह स्वीकारा भर है कि जसोदाबेन उनकी पत्नी है। यह महिला उम्र के इस पड़ाव पर उनके साथ रहने की इच्छा रखती है और अपने पूरे वैवाहिक जीवन में वह सभी व्रत और रस्मों रिवाज पूरे करती रहीं, जो एक सामान्य भारतीय हिन्दू सुहागिन करती है।
मोदी को उससे अलग रहने का पूरा हक है लेकिन इसके लिए उन्होंने वैधानिक और सामाजिक तरीका-तलाक को क्यों नहीं अपनाया, क्यों जसोदाबेन को पूरे जीवन अपने साथ अटकाए रखा। इस बात के कोई मानी नहीं है कि य शादी मोदी की इच्छा खिलाफ थी, यदि कर ली है तो उनकी कुछ नैतिक-सामाजिक और वैधानिक जिम्मेदारियां भी बनती हैं। पर मोदी इसी तरह की तमाम बदनामियों को सफलता के पायदान बनाने में सफल होते गये हैं। इन सबके चलते क्या यही माना जाय कि समाज की दशा-दिशा नकारात्मकता की ओर अग्रसर हो रही है।
सोशल साइट्स पर मोदी, स्मृति और जसोदाबेन को लेकर दो दिनों से जो छीछालेदर हो रही है वह इसी नकारात्मक मानसिकता की बानगी है। कांग्रेस और भाजपा मानसिकता वालों में ऐसे मामलों में लेकर ज्यादा अन्तर नहीं है। भाजपाई मानसिकता वालों ने भी सोनिया को लेकर अपनी गंदी मर्दवादी सोच को कम जाहिर नहीं किया है।

25 नवम्बर, 2014

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