Thursday, November 13, 2014

किशोर की आत्महत्या पर थोड़ा ठिठकें तो सही

समाचार है कि सिरोही जिले के पालड़ी गांव के एक बारह वर्षीय किशोर ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उसे उसके अध्यापक मारते-पीटते और कुछ सहपाठी प्रताडि़त करते थे। पांचवीं कक्षा के इस किशोर द्वारा छोड़ी गई चिट्ठी से पता चला कि दीपावली से पहले बीमार होने के कारण जो गृहकार्य बकाया हो गया था उसे दीपावली की छुट्टियों में पूरा किया, इसी चक्कर में वह दीपावली का गृहकार्य नहीं कर पाया। छुट्टियों के बाद से ही उसे जब-तब प्रधानाध्यापक के सामने पेश कर दिया जाता और अध्यापक और प्रधानाध्यापक उसे डण्डे से जंतराने लगते।
प्रताडऩा की इस तरह की घटनाएं लगभग सभी शहरों और गांवों में अंजाम दी जाती रही हैं। कुछ अध्यापक इसे अपना तरीका बना लेते हैं तो कुछ अन्यत्र की अपनी कुण्ठाओं का शिकार अपने विद्यार्थियों को बनाते हैं। निजी स्कूल में तो कुण्ठा का बड़ा कारण कम वेतन का मिलना है, जिसके चलते वे अपने घर-परिवार की न्यूनतम जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते। सरकारी स्कूलों में जहां जरूरत से ज्यादा ही वेतन मिलने लगा है, वहां भी ऐसी घटना होती है। कुण्ठाएं धनाभाव में ही हो जरूरी नहीं है।
उक्त किशोर की बात तो इसलिए सामने गई कि उसने मरने से पहले कारण का पूरा चिट्ठा लिख छोड़ा। अन्यथा बहुत विद्यार्थी ऐसा भुगतते रहते हैं या शिक्षा से पलायन कर जाते हैं। कोई मरता भी है तो इस तरह से व्यवस्थित पत्र छोड़कर मरने वाले कम ही होते हैं। ऐसे विकसित मानसिक विकास के किशोर ने आत्महत्या जैसा कदम उठाया, जो विचारणीय है। समाचार से यह मालूम नहीं होता है कि इस बड़े कदम से पूर्व उस किशोर ने अपने माता-पिता, भाई-बहिन या किसी संगी-साथी से अपनी व्यथा को साझा किया या नहीं। किया ही होगा लेकिन सामान्यत: जैसा होता है थोड़ी बहुत तसल्ली या समझाइश से काम चलाने की कोशिश की जाती है, वैसा ही सब कुछ किया गया होगा और धापे हुए इस किशोर ने अन्तिम विकल्प चुन लिया।
हो सकता है अध्यापकों को कुछ सजा मिले या यह भी हो सकता है कि लम्बी न्यायिक प्रक्रिया में रास्ते निकाल कर वे सब बच भी जाएं-लेकिन जिस घर का बालक चला गया, उसे लौट कर नहीं आना है।
कहने को हम आधुनिक सुख-सुविधाओं वाले युग में रहते हैं, ऐसी आत्ममुग्धता में पूर्व के सभी समयों के लोग भी रहते ही होंगे, क्योंकि मनुष्य की फितरत है कि हर बाद के समय में अपने पिछले समय से सुख-सुविधाओं में कुछ नया वह जोड़ ही लेता है। हां, इतने आधुनिक तो हम हैं कि इस नये जोडऩे की गति कई गुना कर ली है। लेकिन ठिठक कर कभी इस तरह भी विचार किया क्या कि सुख के सभी साधन अंतत: दु: के कारक ही साबित हुए हैं? क्योंकि हासिल सुख के इन साधनों से वंचित होना या इन्हें हासिल कर पाने का दु: और कुण्ठाओं के परिणाम ऐसे भी होते हैं जिनमें ऐसों के व्यवहार के चलते किसी अन्य को प्रताडि़त होना पड़ता है और पराकाष्ठा में जान भी गंवानी पड़ सकती है। उक्त किशोर का अन्तिम बयान यदि बनावटी नहीं है तो वह ऐसी ही कुण्ठाओं का शिकार हुआ है।
इसीलिए अति आधुनिक होने की इस घुड़दौड़ में विचारने की जरूरत है कि सुखों के लिए ही जी रहे हैं या जीने की अनुकूलता मिल जाए उतना ही पर्याप्त है। समाधान नेताओं के पास है और ही बाबा-मां बने इन प्रवचनकर्ताओं और साधुओं के पास। इनकी जीवनचर्या समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि ये राजनेता और संत सामान्यजनों से ज्यादा गति से इस घुड़दौड़ में लगे हैं और इनके पास जाने वाले भी इस घुड़दौड़ में और तेज गति से शामिल होने की मंशा लेकर ही जाते हैं। नहीं विचारेंगे तो ऐसी घटनाएं और दुर्घटनाएं समाज में बढं़ेगी ही।

13 अक्टूबर, 2014

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