Saturday, November 15, 2014

नरेगा के बहाने भ्रष्टाचार की बात

महात्मा गांधी के नाम पर चल रही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना 2006 से प्रभावी है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में इस योजना का प्रकारान्तर से मकसद यद्यपि बाजार को रोशन करना है, फिर भी इस योजना ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को इस स्थिति में ला दिया कि वह अपनी मजदूरी की दरों पर सम्मान के साथ मोल-भाव करने लगा, बल्कि इस महंगे होते बाजार में अपना ठीक-ठाक गुजर-बसर भी वह करने लगा।
इस योजना के ऐसे परिणामों के साथ ही मध्यम, उच्च मध्यम और उच्च वर्ग की शिकायतें ये होने लगीं कि मजदूर महंगा हो गया, वह नखरे करने लगा, अब मजदूर मिलते नहीं हैं। तो क्या भाव खाने का विशेषाधिकार केवल उल्लेखित इन्हीं वर्गों का है। किसी कमजोर के इस मानवीय (अव) गुणों का सुख लेने की अनुकूलता हासिल हुई तो वह उसका उपयोग क्यों करें। और यह भी कि आप भी खर्च तभी करते हैं जब खर्चने की स्थिति में अपने को पाते हैं।
चूंकि राजनीति को प्रभावित सामान्यत: उक्त उल्लेखित वर्ग ही करते हैं सो केन्द्र में बनी नई सरकार ने इसमें कुछ बदलावों की ठानी, क्योंकि इसे बन्द करने का दुस्साहस वह बटोर नहीं पायी। सरकार ने मंशा बनायी कि इसे 'अधिनियम'के दर्जे से बाहर कर अन्य योजनाओं के ही हश्र तक इसे पहुंचा दें। लेकिन सरकार जिन अर्थ विशेषज्ञों की राय से अर्थव्यवस्था को हांकती है उन सभी ने वर्तमान अर्थव्यवस्था के हित में नरेगा में कोई परिवर्तन करने की हिदायती-सलाह दी और सरकार ने अपनी इस पूर्व मंशा को एक बारगी किनारे कर दिया।
नरेगा की आलोचना का दूसरा बड़ा कारण भ्रष्टाचार को माना जाता है। बिना काम हुए पैसे उठना, आधा-अधूरा काम होना, गैर जरूरी कामों पर धन की बरबादी जैसी तोहमतें इस योजना में लगती रहती हैं। हालांकि क्रियान्वयन और भुगतान के छिद्रों को बन्द करने के लिए कार्यप्रणाली में लगातार बदलाव किए जा रहे हैं। वैसे भ्रष्टाचार के बहाने नरेगा की आलोचना करने वाले बताएं कि सरकारी और निजी दोनों तरह के क्षेत्रों में कौनसा कार्य-व्यापार भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त है। लगभग भ्रष्ट हो चुके इस प्रभावी समाज में केवल नरेगा के भ्रष्टाचार को ही निशाना बनाना कहां तक उचित है। केवल इसलिए कि इस योजना से लाभान्वित कमजोर तबके का शोषण करने के आपके अवसर कम हो गये हैं। जो भ्रष्टाचार आपके अनुकूल है वह भ्रष्टाचार ही नहीं और जो भ्रष्टाचार आपके लिए प्रतिकूलता पैदा करें, वह असहनीय।
भ्रष्टाचार की बात करें तो सामान्य जवाब होता है कि इसे पूरी तरह खत्म करना नामुमकिन है। तब इस पर केवल बात ही होकर क्यों रह जाती है कि यह कम होना चाहिए। समाज में आज अधिकांशत: जो प्रतिष्ठा पाए हैं, उन पर भ्रष्टाचार की फीत लगा कर देखें कि वे कितने खरे हैं। अंगुलियों में गिनने जितने भी नहीं मिलेंगे खरे। ऐसे में उम्मीद करना कि केवल गरीब-मजदूर ही निष्ठा और ईमानदारी से काम करे, कितना व्यावहारिक है। इस योजना से सम्बन्धित जनप्रतिनिधि, निरीक्षक, भुगतान करने वाले ईमानदार होंगे तो मजदूर भी निष्ठा और ईमानदारी से काम करने को मजबूर होंगे।
अपने अड़ोस-पड़ोस की एक सूची तो बनाएं कि नरेगा से घोषित लाभान्वितों के अलावा इसी योजना से अघोषित या कहें भ्रष्ट आचरण से कितने लोग फले-फूले हैं। ऐसा साहस वही कर सकता है जो खुद खरा हो। दूसरों की तरफ एक अंगुली उठाने का हक उसी को है जिसकी शेष चारों अंगुलियां खुद उसे इंगित करती हों।
आज तो इस योजना के अनुकूल खबर यह भी है कि इस नयी सरकार का रेल मंत्रालय भी नरेगा के माध्यम से अपने यहां काम करवाएगा। यह योजना यदि एक दम ही नकारा होती तो यह विस्तार उसे हासिल नहीं होता।

15 अक्टूबर, 2014

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