Saturday, September 20, 2014

कब जगेगा संवैधानिक नागरिक होने का भाव?

यह भारतीय न्याय तंत्र की बड़ी कमी है कि किसी भी मुकदमे का परिप्रेक्ष्य ठीक वैसा होता ही नहीं है जैसा घटित या असल तथ्य होते हैं। लेकिन सत्य यह भी है कि केवल इसी बिना पर दर्ज किसी मामले को शत-प्रतिशत झूठा भी नहीं मान सकते। फैसला जब तक आए तब तक गवाहों का बदलना, दस्तावेजों की हेराफेरी और जांच अधिकारी के प्रलोभन या दबाव में आने की सभी आशंकाएं कायम रहती हैं।
आज यह बात इसलिए करनी पड़ी कि बीकानेर जिले की नोखा तहसील के टांट गांव के राजकीय प्राथमिक विद्यालय के हवाले से इस्तगासे के जरीए दर्ज एक मामला प्रकाश में आया है। एक सितम्बर को दर्ज इस घटना में बताया गया है कि पानी पीने के लिए एक अध्यापक अपनी मटकी अलग इसलिए रखते थे कि स्कूल के कुल 25 विद्यार्थियों में बीस अनुसूचित जाति से हैं और अध्यापकजी के संस्कार छुआछूत से प्रेरित हैं। हो सकता है बच्चों को जोरदार प्यास लगी हो और ठण्डे पानी की कोई वैकल्पिक व्यवस्था वहां हो ही नहीं। मजबूरी में इन्हें अध्यापकजी की मटकी को छूना पड़ा। हो यह भी सकता है कि बच्चे बोछर्डे हों और इसी बहाने मंशा अध्यापकजी को तंग करने की हो। जो कुछ भी हो, कहते हैं केवल इस बिना पर अध्यापकजी ने दोनों बच्चों को केवल पीटा बल्कि मुर्गा बनने की सजा भी सुना दी। लगता है बात इसके बाद से नाक की बन गई और मामला न्यायालय जा पहुंचा।
1947 से पहले तक देश की सदियों पुरानी शासन व्यवस्थाओं में से किसी में भी व्यवस्था इतनी लोकतांत्रिक नहीं थी, जितनी आज है। समाज के साथ तब राज भी जाति व्यवस्था की जकड़ में था। इतिहास के जानकार बताते हैं कि वैदिक काल की कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था ईसा बाद की चौथी शताब्दी में चन्द्रगुप्त के शासनकाल से यह वंशानुगत होकर जाति व्यवस्था में और शासन व्यवस्था परिवारगत होकर केवल बड़े पुत्र को ही हस्तांतरित होने लगी। इसी के साथ समाज और शासन दोनों तरह की व्यवस्थाएं मलिन होती गईं-तानाशाही, अन्याय, शोषण, ऊंच-नीच, छुआछूत आदि-आदि सभी तरह की अमानवीय क्रियाओं को अंजाम देने की दुष्प्रेरणाएं और इन्हें भुगतने की विवशताएं व्यक्ति के सामथ्र्य और निर्बलता अनुसार उसकी हेकड़ी और मजबूरी बन गई। राज करने को मुगल आए हों या अंग्रेज, सभी ने अनुकूलता इसी में देखी और मान लिया कि इस जाति व्यवस्था रूपी बर्र के छत्ते को छेडऩे में ही समझदारी है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि प्रकारान्तर से अन्य तरह की कुलीन व्यवस्थाएं मुगलों और अंग्रेजों के यहां भी मिलती आयी हैं।
देश आजाद हुआ और जिन मूल्यों और उम्मीदों पर स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी गई उसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता को मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया। आजादी के तुरन्त बाद एक बारगी ऐसी उम्मीदें हरी होती लगीं भी, लेकिन कहते हैं कि बुरी आदतें और प्रवृत्तियां आपमते नहीं जाती। संकल्प के साथ कुछ कर गुजरने और नया करवाने की मंशा वाला कोई रहा नहीं। शासन कहने को तो लोकतांत्रिक है लेकिन व्यवहार में कुलीन जातीय अहम् और भिन्न तौर-तरीकों के साथ आज भी पूरा असर दिखाता है। इन जातीय कुलीनों ने समान सम्मान की चतुराई से अनुसूचित जातियों के समर्थों और सबलों का एक नया कुल खड़ा करवा दिया। इस सबसे स्थापित यह हुआ कि जिसके पास उच्च जाति का टैग नहीं है वह धन और शासन जैसे किसी भी सत्तारूप को हासिल कर अपने ही समाज को धत् कर सकता है। इस प्रकार जातीय समस्या के करेले पर सबलता और सामथ्र्य की नीम भी चढऩे लगी।
पढऩे-लिखने के बाद पढ़ाने लायक बने टांट गांव के स्कूल के इन अध्यापक को उनके कुलीन संस्कार यह मानने ही नहीं दे रहे हैं कि स्वच्छता का जन्म और कुल से कोई सम्बन्ध नहीं होता। विद्यार्थी यदि स्वच्छ और स्वस्थ हाथों से पानी पी रहा है तो कोई अनर्थ नहीं हो जायेगा। संवैधानिक शासन के चौसठ वर्षों बाद भी समाज का प्रभावी वर्ग ऐसी अमानवीय मानसिकता से अपने को नहीं निकाल पाता है तो शोचनीय है। कानूनों का दुरुपयोग करने से बल पड़ते कौन चूकता है, इसलिए इस दलील की संवेदनाएं भोथरी हो गई हैं।

20 सितम्बर, 2014

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