Thursday, September 4, 2014

आमजन क्या लातों का भूत है?

किसी मूल्य के क्षरण का आभास नियन्ताओं के हाव-भाव, उनकी भाषा और कार्यशैली से किया जा सकता है। मोदी सरकार ने आते ही केवल पर्यावरणविदों की बिना परवाह किए बल्कि एक प्रदेशविशेष की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए वर्षों से लम्बित और उच्चतम न्यायालय की प्रतिकूल टिप्पणी के बावजूद सरदारसरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ा दी। जिस गुजरात से प्रधानमंत्री स्वयं आते हैं, इस बढ़ी ऊंचाई से उसी गुजरात को अतिरिक्त 'लाभ' होना है। और पड़ोसी है मध्यप्रदेश, जो इसे अपने प्रतिकूल मानता रहा है। सरकार ने अपने पहले पखवाड़े में ही उन अनेक योजनाओं को हरी झंडी दिखा दी जो लम्बे समय से पर्यावरण मंत्रालय में अटकी पड़ी थीं। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने देहरादून में कल यह मुनादी करवा दी है कि देश के विकास में पर्यावरण को बाधा नहीं बनने दिया जायेगा-मानों पर्यावरण कोई पराया हो। मानव सभ्यता को आज जो और जितना हासिल है उसमें मनुष्य से कहीं अधिक पारिस्थितिकी का योगदान है। हमसे पूर्व के लोग वर्तमान नियन्ताओं की तरह व्यवहार करते तो हमारे वर्तमान की गत क्या होती कहना मुश्किल है।
प्रकाश जावडेकर जैसी मंशा का ही बयान देश के गृहमंत्री राजनाथसिंह ने पुलिस को संबोधित करते कल जयपुर में दिया है। गृहमंत्री ने पुलिस को बेखौफ होकर काम करने की छूट देते हुए आश्वस्त किया है कि मानवाधिकार संगठनों को मैं देख लूंगा। देश के गृहमंत्री यह बयान देते संभवत: भूल गये कि खुद उनके मंत्रालय में ही मानवाधिकार संबंधी एक पूरा प्रभाग काम करता है। गृहमंत्री की आपत्तिजनक बात यह भी थी कि उन्होंने आतंकवादियों और नक्सलियों को एक साथ सलटाने की वैसी ही गलती की जैसी पिछली सरकारें करती आयी हैं। हर संगठित असंतोष और अपराध के पीछे गलत-सही विचारधाराएं और प्रेरक होते हैं, ऐसे में इन सभी को एक साथ एक बारगी में निबटाया तो जा सकता है, लेकिन स्थाई हल तब तक नहीं निकाला जा सकता जब तक इनकी तह में जाया जाए। राजनाथसिंह के बयान से लगता है कि उनकी कार्यशैली हल निकालने की नहीं निबटाने की है।
हो सकता है राजनाथसिंह केन्द्र सरकार में वर्तमान की अन्दरूनी खींचातानी से खिन्न हों लेकिन राजस्थान जैसे लगभग शान्त प्रदेश में आकर ऐसी बयानबाजी करके वे क्या सन्देश देना चाहते हैं। 'अच्छे दिनों' का भरोसा देने वाली सरकार ने वर्षों से लम्बित कई कमेटियों की रिपोर्टों और न्यायालयों की हिदायतों के बावजूद पुलिसबल के पुनर्गठन की मंशा तक जाहिर नहीं की, जैसा-तैसा भी यह महकमा है उलटे इस कोढ़ी महकमे में खाज की प्रेरणा देने में लग गये।
सरकारी महकमों में पुलिस महकमा ऐसा है जिसकी छवि आमजन में पहले से ही सबसे ज्यादा खराब है। इसी सप्ताह आए एक सर्वें में अस्सी प्रतिशत ने यह माना कि सर्वाधिक भ्रष्ट पुलिस महकमा है। यह एक ऐसा महकमा है जिसकी स्थिति उस स्थानीय खेल के लक्ष्य के समान है जिसमें यह कहकर उसे मारा जाने लगता है कि ' क्या-ऊरदो, इन्हें नहीं मारे जको मुरदो' इस तुकबंदी के शिकार की-सी स्थिति इस महकमे की करवा दी गई है। अन्तर बस इतना ही है कि पुलिस महकमें के साथ यह खेल बिना खेल भावना के खेला जाता है। शासकों और राजनेताओं द्वारा अपने और अपनों के हित और रुतबा साधने का सबसे बड़ा जरीया यही महकमा हैं, सभी जानते है, ड्यूटी पर लगे सिपाही से लेकर पुलिस अधीक्षक तक के लिए उगाही के टारगेट निश्चित होते हैं और यह किनके लिए किया जाता है, गृहमंत्री इसे भी अच्छी तरह जानते समझते हैं।
'अच्छे दिनों' की जरूरत तो यह थी कि आमजन को बिना वजह सर्वाधिक प्रताडि़त करने वाले इस महकमे को सुधारने के लिए शासकों और राजनेताओं पर ही चौपहिया वाहनों के लिए बने स्पीड गवर्नर जैसी युक्ति लगाई जाए ताकि वे इसका दुरुपयोग कम करें। बजाय गति को कम करने के गृहमंत्री इसमें और छूट देने की बात करने लगे हैं। नरेन्द्र मोदी की कुछ कर गुजरने की मंशा को हड़बड़ी में पूरा करवाने में उनके सिपहसालारों से जो गड़बडिय़ां हो रही हैं वे मानवीय मूल्य आधारित समाज के विकास की दिशा तो हरगिज नहीं हो सकती। यह कार्यशैली देश के लिए उस कहावत को चरितार्थ करती लगती है जिसमें कहा जाता है कि 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते।' ऐसा मानते हुए यह भूल जाते हैं कि ऐसे में प्रत्येक समर्थ और सबल के आगे लातों का भूत कमजोर ही होता है।

4 सितम्बर, 2014

No comments: