Wednesday, September 17, 2014

भ्रमित होकर वोट देने से करना होगा किनारा

'आजादी बाद के इन छासठ वर्षों में कांग्रेस ने भ्रमित करके वोट लेने की जो नीति अपनाई, उससे ज्यादा भ्रमित करने वाला आने पर ऐसे ही परिणाम आने थे। ...इन चुनाव परिणामों को जिस मोदी लहर की परिणति कहा जा रहा है वह पूरी तरह बनावटी है।'        —'विनायक' सम्पादकीय 17 मई, 2014
पिछले लोकसभा चुनावों के परिणाम 16 मई, 2014 को आए थे और 17 मई के अपने 'सम्पादकीय' में विनायक ने इन दो वाक्यों से परिणामों को समझने की कोशिश की थी। पहले वाले वाक्य पर कुछेक मित्रों ने एतराज इस तरह जताया कि क्या जनता ने वोट भ्रमित होकर किया है?
उक्त आम चुनाव के बाद के इन चार महीनों में देश में जहां भी उपचुनाव हुए वहां के परिणामों ने साबित  किया है कि जनता को यह एहसास होते ही कि हमें भ्रमित किया गया, तो तात्कालिक प्रतिक्रिया में जो भी सामने विकल्प था, जैसा-तैसा भी था, उसे अपनाकर अपने गुस्से का इजहार कर दिया। उत्तरप्रदेश के ग्यारह विधानसभा क्षेत्रों के नतीजे इसका प्रमाण हैं। जनता सहित सभी जानते हैं कि उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार प्रत्येक मोर्चे पर नाकारा साबित हुई है, बावजूद इसके जनता ने समाजवादी पार्टी को तीन-चौथाई सीटों पर विजय दिलवा दी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आम चुनाव के अपने पूरे अभियान में जिन-जिन मुद्दों पर कांग्रेस को भुंडाया, सरकार बनने पर उनमें से किसी एक का भी चामत्कारिक समाधान करना तो दूर उम्मीदें तक वे नहीं दे पाए। भ्रष्टाचार, महंगाई, कालाधन, चीनी-पाकिस्तानी घुसपैठ, कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर आये दिन की गोलाबारी जैसे अनेक मुद्दे हैं जिन पर मोदी ने छप्पन इंचीय भरोसा दिया था, यह सभी मुद्दे ठीक उसी तरह मुंह ऊपर किए और उससे भी ज्यादा ठुड्डी ऊपर किए खड़े हैं, जिस अंदाज में यह कांग्रेसनीत मनमोहन सरकार के समय खड़े थे। कहने वाले कह सकते हैं कि चार महीनों में परिणाम की उम्मीदें बेमानी हैंसहमत हैं उनकी बात से। लेकिन इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज करने से ज्यादा राज होते दीखना जरूरी है, यानी जनता को यह तो लगना चाहिए कि 'अच्छे दिन' सचमुच आने वाले हैं। ऐसी उम्मीदें तब ज्यादा हिलोरें लेती हैं जब मोदी ने लगभग इस तरह भ्रमित कर दिया हो कि वे कुर्सी पर बैठेंगे नहीं कि सभी समस्याएं छूमंतर हो जायेंगी। ऐसा भ्रम मोदी नहीं देते तो पिछले आम चुनावों में जनता भले ही उन्हें सिर पर बिठा कर कंधे पर बिठाती, लेकिन उपचुनावों में इस तरह से नहीं छिटकाती।
देश के सामने वे सभी समस्याएं विकराल हैं जिनका जिक्र ऊपर किया, मोदी भी जानते हैं। वे यह भी समझते थे कि इनसे चुटकियों में निबटा नहीं जा सकेगा। वर्तमान की ऐसी आर्थिक, प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था में तो हरगिज नहीं। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की दुकड़ी ने उत्तरप्रदेश में इस उम्मीद से साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलना चाहा कि शायद जनता इस बार 'धर्म' पर ब्लैकमेल होकर भाजपा को वोट दे देगी लेकिन वहां के मतदाताओं ने इस अमानवीय युक्ति को सिरे से खारिज कर सन्तोष दिया कि समाज में अभी सहिष्णुता कायम है और इसे अखिलेश के कुशासन की कीमत पर भी कायम रखेंगे।
सरकार और पार्टी को कोरपोरेट हाउस की तर्ज पर चलाने में मोदी एण्ड शाह एसोसिएट पार्टी और शासन पर काबिज रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, उनकी अब तक की करतूतें इस बात की पुष्टि भी करती हैं। और यह भी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कंधे का उपयोग भी ये तभी तक करेंगे जब तक संघी इनके अनुकूल रहेंगे।
बात अब राजस्थान में हुए चार विधानसभा उपचुनावों के परिणामों की भी कर लेते हैं। इनमें से तीन के परिणाम उसी कांग्रेस के पक्ष में गये हैं जिसे जनता ने पिछले वर्ष दिसम्बर के विधानसभा चुनावों में लगभग खारिज कर दिया था। प्रदेश की तत्कालीन सरकार के खिलाफ आए नतीजे लगभग अप्रत्याशित रहे उन्नीस-इक्कीस जैसे परिणामों की उम्मीद की जगह परिणाम 163-21 का रहा। 'विनायक' ने तब भी कहा था कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार को यह खमियाजा अपनी पार्टी की केन्द्र सरकार की गिरी साख की बदौलत भुगतना पड़ा है। कमोबेश स्थिति अब भी वैसी ही है, केन्द्र में मोदी की सरकार से जनता के मोहभंग का खमियाजा वसुन्धरा राजे ने इन उपचुनावों में भुगता है। वसुन्धरा के करिश्मे ने तब काम किया और ये असफलता उनकी है क्योंकि 2013 के विधानसभा चुनावों में 2004 जैसा करिश्मा वसुन्धरा दिखा भी नहीं पायी थीं। इतना जरूर है कि वसुन्धरा जो अब तक मोदी एण्ड शाह एसोसिएट को प्रदेश पार्टी और सरकार में हाथ नहीं रखने दे रही थी। यह उपचुनाव परिणाम उसके जलवे को कम करने और मोदी एण्ड शाह के कम जलवे के बावजूद वे अपनी कार्यशैली के चलते वसुन्धरा के पर भिगोने की कोशिश करेंगे। ऐसे ही मानी में बात करें तो 'काकडि़ए कंवले' वसुन्धरा के भी नहीं हैं। हो सकता है राजस्थान के मामले में भाजपा के मंच पर सांप-छछूंदर का तमाशा शीघ्र ही देखने को मिले।
बात आम आवाम की भी कर लेते हैं। कांग्रेस और भाजपा के इस 'उतर भीखा म्हारी बारी' के खेल में ठगा तो जनता को ही जाना है, किसी तीसरे विकल्प के नहीं उभरने तक लोकतंत्र के इस समुद्र में जैसे तैसे भी जहाज तैर रहे हैं, उनमे से एक से भ्रमित होने का एहसास होने पर दूसरे पर जा बैठने और दूसरे पर भी ऐसे ही एहसास पर पहले पर बैठने की मजबूरी आमजन की रहेगी। अन्य सभी छिट-पुट पार्टियां अपनी अनुकूलता अनुसार इन्हीं जहाजी बेड़ों के हिस्से बनते रहते हैं, अत: इन छिटपुटियों से उम्मीद करना तीसरे भ्रम को न्योतना है।
आजादी बाद से ही मानवीय और असल लोकतांत्रिक विकल्प चुनने के लिए आम-आवाम को लोकतांत्रिक देश के नागरिक के रूप में शिक्षित करने का व्यापक प्रयास कभी किया ही नहीं गया। पिछली सदी के आठवें दशक में शुरू हुए प्रयास को इन्हीं गिरोहों में से बने समूह ने लपक लिया था। अब कुछ करना है तो इन गिरोहों से सावधान रहना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

17 सितम्बर, 2014

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