Thursday, August 14, 2014

त्योहारों से गायब होता उल्लास

ज्ञात इतिहास बताता है कि पर्वों और त्योहारों को मनाने के ढंग और तौर-तरीके काल और परिस्थिति के अनुसार केवल बदलते रहते हैं बल्कि इनमें बदलाव भी होता रहता है। अपने देश को ही देखें तो भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विभिन्न त्योहारों का कम-ज्यादा महत्त्व उनके मनाने के उत्साह से समझा जा सकता है। उन्नीस सौ सैंतालीस में देश आजाद होने के बाद 1950 तक एक-एक करके तीन राष्ट्रीय उत्सव मनाया जाना तय हुआ, इससे पूर्व राष्ट्रीय उत्सवों जैसी अवधारणा का उल्लेख नहीं मिलता है। 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ, 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई और 26 जनवरी, 1950 में संविधान का राज कायम हुआ। तदनंतर प्रतिवर्ष 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस, महात्मा गांधी की जन्म तारीख 2 अक्टूबर को गांधी जयन्ती और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस राष्ट्रीय पर्व घोषित हुए। राष्ट्रीय पर्व यानी सरकारी पहल पर आयोजन। ये आयोजन जब शुरू हुए तो देश के आम-आवाम के मन में उत्साह और उमंग थी और 'अपनी' सरकारों से उम्मीदें। आजादी बाद के शुरू के वर्षों में सचमुच ऐसा लगता था कि ये राष्ट्रीय त्योहार आम-आवाम के त्योहार हैं।
धीरे-धीरे उम्मीदें खिरती गईं। भ्रष्टाचार बढ़ता गया। शासक-नेता, सरकारी अधिकारी-कर्मचारिवर्ग व्यवहार बजाय लोक सेवक नये 'खसमों'-सा करने लगे तो धीरे-धीरे ये राष्ट्रीय पर्व अन्य परम्परागत सामाजिक-धार्मिक पर्वों की तरह वर्ग और समूहविशेष के पर्वों में तबदील होते गए। बल्कि राष्ट्रीय पर्वों का हश्र इनसे भी बुरा इस मानी में हुआ कि सामाजिक-धार्मिक पर्व समर्थों और कमोबेश समृद्धों में हैसियत अनुसार दिखावी उत्साह तो बटोर लेते हैं। लेकिन इन राष्ट्रीय पर्वों को मनाने के लिए यदि नौकरी और पद की बाध्यता हो तो इनका महत्त्व ढेर सारी छुट्टियों में तीन और छुट्टियां जुडऩे से अधिक नहीं होता, जनता की भागीदारी लगभग नहीं के बराबर रह गयी है। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों को भी सरकारी दबाव में हांका जाता है।
आजादी के छासठ वर्षों बाद राष्ट्रीय त्योहारों की ही ऐसी स्थिति हुई हो ऐसा नहीं है। जो धार्मिक-सामाजिक त्योहार हैं उनका महत्त्व और प्रदर्शन भी उन्हीं लोगों में देखा जाता है जो आर्थिक रूप से अनुकूलता से हों, जितनी आर्थिक अनुकूलतात्योहारों के प्रति उत्साह भी उतना। त्योहारों में यदि धार्मिकता का पुट है, संस्कार यदि वैसे ही डाल लिए गये हैं तो सामथ्र्य हो तो भी रस्म अदायगी कर ली जाती है।
त्योहार और पर्वों का प्रेरक मन का उल्लास होता है। अपनी जीवन शैली और लालचों को इस तरह रंग लिया है कि जो समर्थ और समृद्ध हैं, उल्लास उनके भी चेतन नहीं होते। देश की आबादी का आधे से भी ज्यादा वह हिस्सा जिनकी जद्दोजेहद ही अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने में खलास हो जाती हो, ऐसों में राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक पर्व-त्योहारों के प्रति उल्लास की उम्मीद करना बेमानी और अमानवीय है।
14 अगस्त, 2014

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