'बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ' इस चलताऊ कथन को सम्भाग के सबसे बड़े और कभी पूरे प्रदेश में प्रतिष्ठ रहे पीबीएम अस्पताल पर सटीक चस्पा किया जा सकता है। आज से तीस-पैंतीस साल पहले तक दक्ष
डाक्टर, अच्छे नर्सिंग स्टाफ व अन्य कर्मचारियों, साफ-सफाई और हर तरह से आदर्शतम माने जाने वाले इस अस्पताल के नाम को चहुंओर व्याप्त भ्रष्टाचार, स्वार्थलिप्सा, लापरवाही और गैर
जिम्मेदारी ने लील लिया है। अब तो आश्चर्य उस दिन होता है जब छोटी-मोटी ही सही, इससे सम्बन्धित कोई नकारात्मक खबर न बनती हो।
सूबे के स्वास्थ्य
मंत्री ने जून माह की अपनी बीकानेर यात्रा के दौरान खुद इसे व्यक्तिगत निगरानी में लेने की बात कही और आश्वस्त किया था कि इसका ढंग-ढाळा सुधार देंगे। हालांकि, पिछले
एक-सवा महीने में अस्पताल की व्यवस्थाओं में ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जिससे मंत्री जी के 'गोदनामे' की
पुष्टि हो सके। हां, कल जरूर
चिकित्सा-शिक्षा के संयुक्त सचिव एसपी सिंह अस्पताल के औचक निरीक्षण पर पहुंचे और ऐसी छिद्रान्वेषी छान-बीन की कि
दरवाजों-खिड़कियों की चौखट के पेतामों तक को साफ करवाने की हिदायतें दे डाली। लगने लगा कि पूरे अस्पताल की धड़कनें सुचारु होने को है।
इस अस्पताल
में अकसर कलक्टर पहुंचती है अब संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी पहुंचे हैं। अस्पताल व्यवस्था में चाक-चौबन्दी के लिए
भारतीय प्रशासनिक सेवा के इन अफसरों की आवाजाही और निगरानी को यदि सांकेतिक भाषा में समझें तो क्या मानी लगाए जाने चाहिए, वह भी
तब जब इस अस्पताल को चलाने के लिए चिकित्सा सेवा के ही अधीक्षक और उपाधीक्षकों सहित सरकारी कारकुनों का छोटा-मोटा बेड़ा व्यवस्था बनाए रखने के नाम
पर ही तनख्वाहें पाता है। हो सकता है ये सहयोगी उतने न हों जितनों की जरूरत है। नये सहयोगियों की भरती के लिए भी दत्तक अभिभावक बने मंत्री जी को कहा जा सकता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जितने भी इसकी प्रशासनिक व्यवस्था में वर्तमान में लगे हैं यदि वे ही पूर्णनिष्ठा और थोड़ी अतिरिक्त रुचि, नि:स्वार्थ भाव दिखाएं तो अस्पताल का पुराने वाला रंग-ढंग काफी कुछ लौट सकता है। पर रोड़ा
असल यही है कि निष्ठा, रुचि और नि:स्वार्थ के जमाने जब अधिकांश सरकारी सेवियों ने लाद दिए तो इन पीबीएम वालों से उम्मीद करना क्या 'ज्यादती' में
नहीं आएगा। इस बात को क्या मंत्री और मुख्यमंत्री नहीं जानते-समझते हैं। अधिकांश मंत्रियों सहित दूसरे सरकारी महकमों वालों ने करतूतों
को ही अंजाम देना कार्यशैली का हिस्सा बना चुके हों' तब इस
पीबीएम अस्पताल के प्रबन्धक बेड़े से भिन्न उम्मीदें करना अजूबा नहीं तो क्या?
खैर,
उम्मीद यही करनी चाहिए कि मंत्री महोदय पीबीएम अस्पताल में यह अजूबा संभव कर पाएंगे। सभी डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ समय पर अपनी ड्यूटी पर होंगे और वो भी एप्रेन में। जिन पर साफ-सफाई और रख
रखाव का जिम्मा है वे सम्बन्धित ठेकेदारों को पाबन्द करेंगे कि अपना काम समयबद्धता-गुणवत्ता और मुस्तैदी
से करेंगे। दवा-दारू, गाज-पट्टी आदि-आदि बिना झिक-झिक के मरीज को मिलेंगी। कैंटीन, रसोवड़े की सेवाएं
देने वाले ठेकेदार तय मूल्यों पर स्वच्छता से स्वास्थ्यपरक पदार्थों की पुरसगारी करेंगे। पार्किंग में विस्तृत दरें मय-समयसारणी टंगी होगी और जो
पर्ची देंगे उस पर भी गोलमाल भाषा में छपा नहीं होगा। अरे! यह सब
सपने में देख-दिखा नहीं रहे हैं।
मंत्री जी ने
जिम्मेदारी ली है तो सब चाक-चौबन्द होगा ही। वैसे भी वोट
दे मारने के बाद उम्मीदें करना और उन उम्मीदों को दम तोडऩे देखने के अलावा जनता कर भी क्या सकती है। भ्रष्टाचार को खत्म किया नहीं जा सकता ऐसा कहने वाले ही इसके पोषक हैं और यह भ्रष्टाचार मानवीयता का लगातार बंटाधार कर रहा है। पीबीएम तो इसकी बहुत छोटी बानगी है।
13 अगस्त,
2014
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