Friday, August 1, 2014

निजी स्कूल संचालकों का आन्दोलन

राजस्थान की निजी शिक्षण संस्थाएं इस मांग के साथ आन्दोलनरत हैं कि फीस नियामक आयोग को भंग किया जाय। प्रदेश की सरकार ने निजी स्कूलों द्वारा 'मनमाना' शिक्षा शुल्क वसूलने पर अंकुश रखने के लिए इस आयोग का गठन किया था। इसी सप्ताह इस आयोग के मुलाजिम निजी स्कूलों की फीस निर्धारण में रियायत बरतने के एवज में रिश्वत लेते धरे गये थे। इससे लगता है कि बात दरअसल फीस निर्धारण के विरोध की नहीं है। परेशानी ज्यादा यह है कि मनचाही फीस तय करवाने के लिए रिश्वत का जो लेन-देन है, वह इन्हें भारी लगता है। चूंकि यह व्यवस्था नई है सो इसे निजी स्कूलों के संचालक नया लफड़ा मान चुके हैं। अन्यथा मान्यता से लेकर परीक्षाएं आयोजित करने तक की ऐसी प्रक्रियाएं, जिनका वास्ता सरकारी महकमों से है, इनमें से कौन-सी प्रक्रिया ऐसी है जिसे ये बिना लेन-देन के अंजाम देते हैं।
चूंकि शिक्षा अब व्यवसाय हो गयी है सो ये वे सभी हथकंडे अपनाते हैं जो दूसरे व्यवसायी अपनाते हैं, बल्कि मिलावट, ड्रग्स और नकली माल बनाने बेचने जितना गिरा काम तो ये नहीं करते, जब ऐसे काम करने वाले ही इस भ्रष्ट समाज में फल-फूल और प्रतिष्ठा पा रहे हैं तो यह तो बस इतनी गड़बड़ी ही कर रहे या करना चाह रहे हैं कि अभिभावकों से मनमानी फीस वसूलें, कापी-किताब, स्टेशनरी और बस्ते खुद के तय दामों में बेचें। जिस भ्रष्ट और अकर्मण्य व्यवस्था में ये फल-फूल रहे हैं उसी व्यवस्था के द्वारा सरकारी शिक्षण संस्थाओं का बंटाधार करवाया गया है। और इन स्कूलों को कौन-सा देश का भविष्य तैयार करना है? इन्हें भी तो अच्छे भले बालक-बालिका को पैसे कमाने की मशीन में तबदील करना है, 'सजग अभिभावक' चाहते भी तो यही हैं। अब यह बात अलग है कि इनकी सजगता एकायामी है। अन्यथा ये सजग लोग विभिन्न मदों और करों के माध्यम से जो धन सरकार को देते हैं या कहें सरकार इनसे वसूल लें लेती है, उसी धन से सरकारी स्कूल-कॉलेज और अस्पताल आदि जैसी सभी सार्वजनिक सेवाएं चलती हैं। ये लोग वहां जाकर अपने हक की ऐसी सजगता क्यों नहीं दिखाते कि ये सब सुचारु हों।
उम्मीद हम अच्छे दिनों की करते हैं, किसी पड़ोसी देश के बाशिन्दों के लिए नहीं अपने लिए ही, लेकिन साथ ही चाह रहे हैं कि इसी भ्रष्ट व्यवस्था में ये सब संभव हो जाये तो श्रीमान् यह दूर की कौड़ी है। जो समर्थ और सबल हैं या जो 'अपनेÓ अच्छे दिनों के लिए ज्यादा भुगतान कर सकता है वह तब तक या उतने ही अच्छे दिन भोगने की जुगत में लगे रहते हैं जब तक उसके ये अच्छे दिन कोई अन्य उससे ज्यादा बड़ी रिश्वत देकर खरीद नहीं लेता या ये ऐसी ही किसी युक्ति से कोई सत्तारूप हासिल नहीं कर लेते।
इसलिए आजकल के अधिकांश आन्दोलन, मांगें वादे आदि-आदि सांप-छछूंदर की लड़ाई है और ज्ञापन-अपने स्वार्थों के दस्तावेज। जीना सांप को भी है और छछूंदर को भी। सांप के उल्लेख पर याद आया कि आज नागपंचमी है। अच्छे दिनों की अगवानी का उपाय किसी ने सांप को दूध पिलाने का बताया है तो किसी दुर्लभ सपेरे समूह को ढूंढ़ो और फिर मकसद पूरा करने के लिए उसके पास के बिना विषदंती सांप के लिए दूध भेंट कर दो। वैसे कहते यही हैं कि सांप कभी दूध पीता ही नहीं है। खैर, इस बहस में क्या रखा है, इतना तय जरूर कर ले कि सांप-छछूंदर की इस लड़ाई में आप को सांप होना है या छछूंदर।
रही बात निजी शिक्षण संस्थाओं की-उन्हें यदि धंधा करना है तो आंदोलन की आंख दिखाने के बाद कोई रिश्वत की दरें तय करने का बीच का रास्ता निकाल लिया जायेगा। शिक्षामंत्री ने कल विधानसभा में अपनी मंशा जता दी है कि वे शैक्षिक धंधेबाजों के दबाव में नहीं आएंगे, उम्मीद है वे इस पर कायम रहेंगे।

1 अगस्त, 2014

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