Wednesday, November 27, 2013

चुनावी अटकलें-चार

बीकानेर जिले का खाजूवाला विधानसभा क्षेत्र परिसीमन के बाद बने दो नये क्षेत्रों में बीकानेर (पूर्व) के अलावा एक है। जिले की चार से सात हुई सीटों में श्रीडूंगरगढ़ क्षेत्र चूरू से बीकानेर में आया है। खाजूवाला का अधिकांश हिस्सा पुराने श्रीकोलायत और लूनकरणसर क्षेत्र का है और जब से परिसीमन प्रक्रिया में इस सीट की संभावना बनी तभी से कांग्रेस के वल्लभ कोचर की इस पर आंख थी। लेकिन जैसा कि कहा जा रहा है कि क्षेत्र के दिग्गज देवीसिंह भाटी ने क्षेत्रों को इस तरह फंटवाया कि बजाय कोलायत के खाजूवाला सुरक्षित सीट हो गई। बिना किसी हस्तक्षेप के सामान्य प्रक्रिया के तहत इस सीट का गठन होता तो संभव है कि सोशल इंजीनियरिंग के हिसाब से जिले की सात में से यही सीट अल्पसंख्यक समुदाय की मानी जाती। पर देवीसिंह भाटी ने सावचेती से अपनी सीट को अपने लिए सुरक्षित रखा और खाजूवाला को सुरक्षित करवाकर वणिक समुदाय के वल्लभ कोचर और अल्पसंख्यकों की उम्मीदों पर पानी फिरवा दिया अन्यथा कोलायत सुरक्षित सीट होने वाली थी। अब जब परिसीमन नये सिरे से होगा तब तक बिसात के बादशाह, वजीर, ऊंट, घोड़े, हाथी बदल जाएंगे और पैदल नये-पुराने हो लेंगे।
नई बनी खाजूवाला सीट पर 2008 का चुनाव पहला था और कांग्रेस में जहां इस पर कई जने टकटकी लगाए हुए थे वहीं नोखा क्षेत्र के सामान्य होने के बाद भाजपा में गोविन्द मेघवाल  इसे अपना हक मान बैठे थे। लेकिन अपनी विधायकी के समय वसुन्धरा राजे की आंख की किरकिरी बने गोविन्द मेघवाल को इसका एहसास नहीं हुआ कि पुरजोर सामन्ती मानसिकता वाली वसुन्धरा राजे ने उनके नाम पर गांठ बांध रखी है। मौका आते ही राजे ने वह गांठ खोल ली और अच्छी भली सरकारी नौकरी में डॉक्टरी करने वाले विश्वनाथ को मैदान में उतार दिया। पीठ पर देवीसिंह भाटी के हाथ और गोविन्द मेघवाल की बागी उम्मीदवारी के चलते त्रिकोण संघर्ष में डॉ. विश्वनाथ मात्र 867 वोटों से गोविन्द मेघवाल से जीत भी गये। पर कांग्रेस की सुषमा बारूपाल भी 23,488 वोट लेकर विश्वनाथ से मात्र 2,497 वोट से ही पीछे रही। इसी सीट से तब बहुजन समाज पार्टी के काशीराम ने भी 5,631 वोट लेकर अपनी सम्मानजनक उपस्थिति दर्ज करवा दी थी।
इस तरह देखा जाय तो डॉ. विश्वनाथ की वह जीत कोई बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं थी। कांग्रेस ने तब बहुत कमजोर प्रत्याशी को मैदान में उतारा था। सुषमा बारूपाल की सास जमना बारूपाल ने राज्यसभा सदस्य रहते हुए लगभग सामन्ती व्यवहार अपनाकर अपने पिता पन्नालाल बारूपाल की सामाजिक और राजनीतिक दोनों प्रतिष्ठाओं को खत्म कर लिया था। इसलिए कह सकते हैं कि सुषमा को मिले अधिकांश वोट कांग्रेस की बदौलत मिले ना कि खुद की। गोविन्द मेघवाल ने नोखा से आकर केवल अपने बूते जो हासिल किया वह उल्लेखनीय है। यदि इस बार गोविन्द के व्यक्तिगत वोटों में कांग्रेस के वोटों को भी शामिल मान लें तो उनकी जीत साफ-साफ दिखाई देती है। रिश्ते के भाई-भतीजे की बीड़ में आए देवीसिंह भाटी इस बार पहले जैसा सहयोग शायद विश्वनाथ को ना कर पाएं। गोविन्द मेघवाल की सफलता में पेच एक ही दिखाई दे रहा है कि नरेन्द्र मोदी जिस तरह इस चुनाव को वसुन्धरा बनाम अशोक गहलोत की बजाय मोदी बनाम केन्द्र सरकार बनाने में सफल होते दिख रहे हैं, इसका असर खाजूवाला के वोटर तक कितनी पहुँच बनाता है। अब की बार की इस सीधी लड़ाई में वोटों का अन्तर इसी पर निर्भर करेगा।

27 नवम्बर, 2013

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