Friday, November 1, 2013

त्योहारों के हर्षोल्लास में ठिठक

आज धनतेरस और धन्वंतरि जयन्ती है, कल रूप चौदस और परसों दीपावली। ये दिन उत्तर-पश्चिमी भारत के एक बड़े हिस्से के सबसे बड़े त्योहार रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से जब से बाजार ही सबकुछ तय करने लगा है तब से बाजार के दबाव में मीडिया द्वारा ऐसे त्योहारों को देश के बड़े त्योहारों में प्रतिष्ठित करने की मुहिम जारी है।
अंग्रेजी इलाज और दवाइयों की निर्भरता ने आयुर्वेद और उसके प्रतिष्ठापन धन्वंतरि को मुख्यधारा से बाहर कर दिया। अखबारों को पृष्ठ भरने और टीवी को समय पूरा करने की गरज ना हो तो शायद नई पीढ़ी धन्वंतरि के नाम को ही भुला देती। इसी तरह धनतेरस के साथ हो रहा है। बाजार के हावी होने से पहले इन त्योहारों को महत्त्व देने वाले परिवार इस दिन क्षमता और जरूरत के अनुसार धातु के बरतन खरीद कर परम्परा का निर्वहन कर लेते थे। सजावटी सामान और इत्र-फुलेल लेकर पांच-दस परिवार आते और महीनों की रोटी का जुगाड़ करके अपने देश को लौट जाते। मीडिया द्वारा मुहूर्त और शुभ-अशुभ का भय दिखा कर बाजार को रोशन करने के प्रयास पिछले तीसे सालों में किए गए वे सफल रहे। जिन-जिन हिस्सों में दीपावली बड़ा त्योहार है वहां-वहां बाजार और मीडिया एक-दूसरे के सिद्ध और साधक की हैसियत में हो लिए हैं।
सभी तरह के त्योहार समर्थों के लिए बने हैं। शेष तो अपनी मजबूरियों के चलते इन्हें मनाने की रस्म अदायगी भर करते हैं। यह बाजार समाज को अपने और उसके पैंदे को ना देखने देने की आड़ भी देता है। जो लोग बड़े रिटेल और डिपार्टमेंटल स्टोरों में मौल-भाव करने में अपनी तौहीन समझते हैं, ऐसे सभी स्टोरों में सामान का वाउचर एमआरपी पर बनता है। वही लोग जब थड़ी-गाड़े वाले से सामान खरीदते हैं तो मौल-भाव किए बिना नहीं रहते। इसी के चलते थड़ी-गाड़े वाले अपनी मजदूरी को निश्चित करने के लिए कम तौलने, नकली माल पकड़ाने और गिनती का अन्तर करने को मजबूर होते हैं।
हर्षोल्लास के ऐसे अवसरों परविनायककी सावचेती की ऐसी बातों को नकारात्मक कहा जा सकता है लेकिन है यह सचाई। ठकुरसुहाती बातों से बचना इसलिए जरूरी है क्योंकि लोक इसी कैबत के साथठगायां ठाकर बाजीजेभी प्रचलित है जो जाहिर करती है कि रुतबा ठगे जाने से ही हासिल होता है। बाजारवाद के इस युग में रुतबे को हासिल करने के लिए अपने को ठगाए जाए। कभी ठिठक कर विचारना भी जरूरी है कि छोटा-मोटा जैसा भी रुतबा हासिल किया उसके साथ असल सुख-चैन भी पा लिया क्या? जैसे-तैसे जो कुछ भी हासिल कर लिया है उसे भाग्य कीशुगर कोटिंगके साथ भोगना सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं का समाधान कतई नहीं है। असली खुशियां तभी हासिल होंगी जब इन्हें हासिल करने की जुगत अपने लिए नहीं अन्य के लिए करेंगे।

1 नवम्बर, 2013

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