किसी परिचित व्यक्ति की कोई बात या व्यवहार न
जंचे तो उसके लिए कहा जानेवाला यह आम जुमला है कि ‘थारी अकल कैण काढ़ ली’। यह जुमला कहनेवाला दो तरह के आत्मविश्वास से लबरेज होता है, पहला तो यह कि वही उसका सबसे करीबी और शुभचिन्तक है और दूसरा यह कि वह उससे चतुर भी है। राजनेताओं के बाड़े बदलने के इस दौर में ऐसे जुमलों की बारम्बारता बढ़ जाती है। हाल ही में कांग्रेस से भाजपा में जाने वाले कांग्रेस के प्रदेश सचिव सलीम भाटी, देहात प्रवक्ता श्याम तंवर और अन्य तीन के बारे में कल एक भाजपाई नेता ने ही फेसबुक पर खुलासा किया कि इनको तैयार करने वालों में एक खबरिया चैनल के संभाग प्रभारी की भूमिका उल्लेखनीय रही है। कहने वाले यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि अगर सचमुच ऐसा है तो ये ‘मीडिया पर्सन’ अपनी चतुराई के परीक्षण में सफल कहे जा सकते हैं और अकल निकलवा लेने की चूक भाटी और तंवर से हो गई है। तर्क यह कि इन नेताओं ने जितनी पद-प्रतिष्ठा अब तक हासिल की है वह इनकी क्षमता और पात्रता से अधिक ही थी, कांग्रेस में रहते तो इस तरह की पद-प्रतिष्ठा को ये बनाए रख सकते थे, भाजपा में जाकर इससे ज्यादा क्या हासिल कर लेंगे! तटस्थ होकर विचारें तो बात में दम इसलिए लगता है कि जो लोग पार्टी की गरज से इधर-उधर होते हैं वे तो बहुत कुछ हासिल करके ही होते हैं। हाल ही का उदाहरण गोविन्द मेघवाल और गोपाल गहलोत का दे सकते हैं और पिछले चुनाव का देखें तो गोपाल जोशी का है जिन्होंने टिकट की शर्त पर ही भाजपा की सदस्यता ली। कुछ और पीछे चलें तो उदाहरण मक्खन जोशी का दिया जा सकता है। 1993 के विधानसभा चुनाव में तब के भाजपाई दिग्गज भैरोसिंह शेखावत ने स्वयं मक्खन जोशी से आग्रह किया था कि बीकानेर सीट से भाजपा के उम्मीदवार हो लें। तब जोशी तैयार नहीं हुए, बाद में 1998 के चुनावों से पहले तैयार हुए तो पार्टी ने उन्हें टिकट वाले भाव नहीं दिए और टिकट सत्यप्रकाश आचार्य को पकड़ा दी।
कहने का कुल जमा भाव यही है कि आप अपनी
‘बळत’ से कोई निर्णय लेते हैं तो आपकी ‘कद्र’ कम हो जाती है। हासिल से ऊपर का कुछ हासिल करना बहुत सहज नहीं होता। राजनीति करने वाले इतना ही यदि नहीं समझते हैं तो फिर वे कुण्ठाओं से अलग कुछ हासिल नहीं कर पाते। महबूबअली का भी एक उदाहरण दिया जा सकता है, पर वह कुछ अलग मिट्टी के बने थे। 1977 में जनतापार्टी का टिकट भी वे अकेले अपने बूते हासिल कर पाये क्योंकि तब शहर से कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वालों में से एक भी व्यक्ति उनके साथ नहीं था। जीतने के बाद न केवल राज्य सरकार में मंत्री बनने में सफल हुए वरन् भारतीय जनता पार्टी के गठन के समय के
मुम्बई अधिवेशन में मंच पर भी स्थान हासिल किया। यह बात अलग है कि भाजपा में केवल चुनाव जिताऊ अल्पसंख्यक की पूछ होती है,
वह कुव्वत महबूबअली में भी नहीं थी। 1985 के चुनाव में भाजपाई प्रत्याशी होने के बाद भी उतने वोट हासिल नहीं कर पाए जितने आरएसएस के मताधिकारी स्वयंसेवक और उनके परिजन बीकानेर विधानसभा क्षेत्र में थे। सलीम भाटी यह इतिहास जानते होते तो अकल निकलवाने को तैयार नहीं होते। रही बात श्याम तंवर की तो उम्मीद करनी चाहिए कि वे अपनी हालिया हैसियत को बनाए रखने में सफल हो लेंगे।
16 नवम्बर, 2013
No comments:
Post a Comment