Saturday, December 15, 2012

आधुनिक हो या रूढ़िवादी, कुण्ठाओं का प्रतिफल समान


अमेरिका के राष्ट्रपति बराक, उनकी पत्नी मिशेल और वहां के अधिकांश माता-पिताओं ने वहां की पिछली रात या हमारे समय के हिसाब से कहें आज सुबह अपने-अपने बच्चों को गले लगाया होगा और उनके प्रति अपने स्नेह को प्रकट किया होगा।
भारत के समय से लगभग बारह घंटे पीछे चलने वाले अमेरिका की इस सुबह एक बड़ा हादसा पेश आया। वहां का बीस वर्षीय एक युवक उस प्राथमिक स्कूल पहुंचा जहां उसकी मां पढ़ाती थी। हाथ में उसके बन्दूक थी-धड़ाधड़ चला दी। बीस बच्चे, उसकी मां और छह अन्यों को ढेर कर खुद को भी खत्म कर लिया।
इस घटना से अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इतने विचलित हुए कि उनकी आंखों से सार्वजनिक रूप से एक से अधिक बार आंसू निकल पड़े। यह घटना उस अमेरिका की है जो अपने को हर मामले में दुनिया का सिरमौर मानता है, माना जाता है। वहां समृद्धि है, हर तरह की छूट है, हर तरह का खुलापन है, बावजूद इसके वहां के लोग कुण्ठित हैं, कहने को अपवादस्वरूप ही हों।
बीस वर्ष की उम्र में वह किशोर तो रहा नहीं, युवा हुआ-हुआ था, पता नहीं किन कुण्ठाओं के चलते वह बेलगाम हो गया। अपुष्ट रूप से बताया जा रहा है कि मरने वाले वयस्कों में एक उसकी मां का प्रेमी भी था। हत्याओं की संख्या के हिसाब से तो नहीं पर कुछ इसी तरह की खबरें हम अपने देश में भी अकसर सुनते-पढ़ते रहते हैं। मां-पिताओं के विवाहेत्तर सम्बन्धों को लेकर या बहन के प्रेम सम्बन्धों को लेकर-हिंसा यहां भी होती रहती है। भारत को रीति-रिवाजों और परम्पराओं का वाहक माना जाता है, परम्पराएं रूढ़ि होते देर नहीं लगाती और कुण्ठाओं की एक जननी रूढ़ियों को भी माना जा सकता है। रूढ़ियों को परम्पराओं के नाम से ढोया और धकेला जाता है।
कवि-चिन्तक नन्दकिशोर आचार्य नेपरम्पराकी सटीक व्याख्या की है-‘परम्परा का अर्थ अतीत के चौखटे में वर्तमान को जड़ना नहीं है और ही वह वर्तमान की खिड़की से अतीत की ओर मुग्ध भाव से निहारना है। परम्परा का अर्थ है बदलती हुई परिस्थितियों की चुनौती के सम्मुख एक सनातन जीवन दृष्टि के अनभिव्यक्त आयामों का उद्घाटन
समाज की अधिकांश समस्याओं का विश्लेषण परम्परा की इस व्यवस्था की रोशनी में भी किया जा सकता है। वह फिर चाहे अमेरिका में होने वाली इस तरह की घटनाएं हों या भारत में! पूरी दुनिया के रिश्तों को, लोक व्यवहार को उस तकनीक ने चुंधिया दिया जिसका विकास मनुष्य अपनी सुख-सुविधाओं के लिए, अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए, अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए लगातार कर रहा है। इन सब प्राप्यों को समाज सहज भाव से ले तब तक तो ठीक! लेकिन देखा यही गया है कि वह इन उपलब्धियों को विजयी भाव से ग्रहण करता है और कुण्ठाएं भी इसी विजय-पराजय के भाव के चलते पनपती है। दुनिया, देश और समाज की अधिकांश बदमजगियों का बड़ा कारण यह कुण्ठाएं ही मानी जाती है, फिर वह चाहे आधुनिकतम कहे जाने वाले अमेरिका के बाशिन्दों की हो या फिर रूढ़ियों और आधुनिकता के बीच झूलते भारतीयों की!
15 दिसम्बर, 2012

1 comment:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

जब तक वहां सरकारें बंदूक बनाने वालों के शि‍कंजे से नहीं छूटेंगी यही होता रहेगा