Tuesday, December 11, 2012

काली कमाई का आख्यान


राजस्थान विशेष न्यायालय बिल को राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी है। लोकसेवक चाहे वह चतुर्थश्रेणी कर्मचारी हो या मुख्यमंत्री, हक के अलावा आये धन या सुख-साधनों का उपयोग या भोग अब वे खुद नहीं कर पायेंगे, खुद भी नहीं और उनके परिजन भी नहीं। यह कानून लागू होने के बाद आय से अधिक सम्पत्ति सरकार जब्त कर सकेगी। यानी जिनका स्वभाव ऊपर की या इधर-उधर की कमाई का हो गया उनके वे निकटस्थ और प्रिय रिश्तेदार या प्रिय मित्र जिनका कोई पारिवारिकजन सरकारी सेवा में नहीं है ऐसे सभी की उम्मीदें अब हिलोरें लेने लगेगी। उन्हें भरोसा है कि फलाणजी के यहां आय से अधिक जो भी आएगा, उसे वे घर पर नहीं रख सकेंगे। ऐसी सम्पत्ति को अपने किसी ऐसे मित्र या रिश्तेदार के यहां रखेंगे जिनके घर में कोई लोकसेवक हो। जिनके घर में कोई लोकसेवक नहीं है और ऐसों का कोई निकटस्थ या मित्र सरकारी सेवा में है तो खुद वे उसके और निकटस्थ होने की कोशिश करेंगे। उनकी यह प्रार्थना भी रहेगी कि उनके ये निकटस्थ ऊपरी कमाई का अपना स्वभाव इस नये कानून के भय से छोड़ नहीं दे।
हो यह भी सकता है कि ऊपर की कमाई करने वाले पहले उन ढेरों कानूनों की उड़ती धज्जियों से तसल्ली कर लें कि इस कानून का भी वैसा-सा हश्र ही होने वाला है। ऐसे कानूनों की आधी-अधूरी सी फेहरिस्तविनायकने एक बार प्रकाशित भी की है।
वैसे ऊपर की कमाई करना चौंसठ में से एक कला का अंश है। छप्पनवीं कला है धूर्तता और चालाकी। ऊपर की यह कमाई जिसे काली कमाई भी कहते हैं वह बिना धूर्तता और चालाकी के संभव नहीं है। कोई लोकसेवक अपने काम को धर्म समझकर पूरी निष्ठा से करता है तो उसे कौन तो धन देगा और कौन उपहार! इसलिए उसे या तो धूर्तता बरतनी होती है या फिर चालाकी। कुछ भले लोकसेवक अपना काम धर्म समझ कर करते भी हैं। जो ऐसा करते हैं उन्हें कई बार विषम परिस्थितियों से गुजरना होता है, जिसका काम हो गया उसका स्वभाव इस तरह की परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है। क्योंकि ऐसे लोग भी हैं जो मान चुके हैं इन लोकसेवकों से पड़ने वाला कोई भी काम कुछ दिये बिना नहीं होगा। कोई लोकसेवक बिना हीलहुज्जत के काम यदि कर देता है तो काम करवाने वाले को खुद पर वहम हो जाता है कि यह तो मेरी साख का कमाल है। उसे लगता है कि सामने वाला बन्दा या कहें काम करने वाला लोकसेवक उसकी यानी काम करवाने वाले की प्रशस्ति सुन चुका होगा तभी बहुत स्मूथली उसने काम कर दिया। इस तरह काम हो जाने पर काम करवाने वाले का अब धर्म बनता है कि वह अपना धर्म भी निभाए, और पहुंच जाता है लिफाफा लेकर। यहीं दो धर्मों की टकराहट होती है--एक काम कर रहा है अपना धर्म निभाने को और दूसरा लिफाफा दे रहा है अपना धर्म निभाने को। धर्म की ऐसी टकराहटों में कभी टंकारा भी बजता है, काम करने वाला करवाने वाले के गले पड़ जाता है। काम करवाने वाले के काटो तो खून नहीं, ऐसा क्या कर दिया उस बेचारे ने! लेकिन इस तरह धर्म समझ कर काम करने वालों को अधिकांशतः विनम्र ही पाया है। प्रेम से कह देते है इसकी जरूरत नहीं, मैंने तो अपनी ड्यूटी पूरी की है।
11 दिसम्बर, 2012

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