उत्तर-पूर्व
की छह लोकसभा सीटों पर मतदान का काम आज शुरू हो गया है यानी पन्द्रहवीं लोकसभा के गठन के लिए मतदान का पहला चरण आज शाम सम्पन्न हो जायेगा। अपने इलाके में इसी सत्तरह को वोट पडऩे हैं, यानी खुल्लम-खुल्ला
प्रचार-प्रसार हेतु कुल जमा सप्ताह भर रहा है। वोटों की राजनीति को लेकर कोई खास धमचक अभी तक दिखाई नहीं देने लगी है। वैसे भी वार्ड मेम्बरी के चुनावों जैसी हरकत विधायकों के चुनाव में और विधायकों के चुनाव जैसी रमक-झमक सांसदों के चुनाव
में होती भी नहीं है।
सूबे में भाजपाई सुप्रीमो वसुन्धरा राजे शनिवार को बीकानेर
लोकसभा क्षेत्र में थीं। उन्होंने लूणकरनसर में जनसभा को सम्बोधित किया, उनके उडऩ खटोले में सन्
1980 के बाद कोलायत से पहली बार हारे देवीसिंह भाटी भी साथ थे, जैसे वे आये
वैसे ही गये। इस आवागमन में भाटी ने अपनी 'नेता' को
क्या गोली दी, कह नहीं
सकते। वैसे भाटी का खुद के लिए मोटा-मोट मानना यही रहा है कि
वे प्रदेश के दिग्गज नेता हैं, अन्य जो कोई
किसी हैसियत को हासिल है तो वह बाइचांस है, जब भैरोंसिह
थे तब भी वे ऐसा ही मानते थे। तब तो भाटी ने चांस हथियाने का जुगाड़ भी किया, पर पार
नहीं पड़ी।
खैर,
'गई बात नै घोड़ा ई कौनी नावड़े' सो इन
चुनावों पर आ जाते हैं। कांग्रेस के इस बुरे समय में भी बीकानेर सीट पर उनकी उम्मीदों के कई पुख्ता कारण हैं, प्रदेश में प्रतिपक्ष के नेता
रामेश्वर डूडी का यह क्षेत्र रहा है। राजस्थान की शेष चौबीस सीटों को सचिन पॉयलट के भरोसे छोड़ डूडी अपने को निरवाळा मानें तो इस सीट को निकालने की उनकी जिम्मेदारी कई गुना हो जाती है। यहां से पार्टी उम्मीदवार भी उनके द्वारा अनुशंसित हैं ही।
मौजूदा सांसद अर्जुनराम मेघवाल की उनके
खुद के व्यवहार के चलते स्थिति बहुत अच्छी मानी भी नहीं जा रही है। खुद उनकी पार्टी में उनसे नाराज दिग्गजों की लम्बी फेहरिस्त है। मेघवाल को कांग्रेसनीत केन्द्र सरकार की गिरी साख से बनी मोदी उम्मीद का ही सहारा है।
सांसदी की हेकड़ी
में लगभग सभी से उथला कर बैठे अजुर्नराम मेघवाल को जाजम बिछाने में ही काफी जोर आ रहा है। भाटी जैसे तैसे आ तो गये, सिद्धीकुमारी का तो
अभी कोई अता-पता भी नहीं
है। भाटी के बारे में जो जानते हैं, उनका मानना है कि
भाटी के बट ढीले भले ही पड़ें, निकलते नहीं हैं। राजनीति में राजी-नाराजगी
के तीन स्तर होते हैं, राजी हो तो
मन से लगते हैं, नाराजगी है,
दाबाचींथी हो गई तो तटस्थता अपना लेते हैं, यानी अपने बट ढीले
कर लेते हैं। भाटी का मिजाज अर्जुनराम के मामले में इससे ऊपर नीचे शायद ही है। तीसरी स्थिति खुद स्थितप्रज्ञ होकर अपनी टीम को नकारात्मक सन्देश देने की होती है, सम्भवत: वसुन्धरा
के परसों के ऑपरेशन के बाद भाटी की यह स्थिति शायद ही रहे।
गांवों में डूडी कुछ करने में सफल होते हैं तो कांग्रेस
के लिए बड़ी चुनौती शहरी और कस्बाई वोटों की हैं, जिनमें खुद अर्जुनराम के बिना
कुछ किए धरे ही समर्थन हासिल है। इन शहरी क्षेत्रों में कांग्रेस हारती है तो लोक दिखाऊ इनके छोटे और बड़े नेता ही जिम्मेदार होंगे। डूडी कुछ अन्तर गांवों में बना भी लेंगे तो इन शहरी कार्यकर्ताओं के भरोसे वह काम नहीं आना है। भाजपा के गोपाल जोशी हालांकि मेघवाल से खुश नहीं हैं, वह कुछ
खास नहीं भी करते हैं तो भी पार्टी को वोट मिल जाएंगे। साख तो स्थानीय कांग्रेसियों की दावं पर है कि वह विधानसभा चुनावों के वोटों के अन्तर को कितना कम कर पाते हैं। ऐसी कूवत और सामथ्र्य या इच्छाशक्ति किसी शहरी नेता में नहीं देखी जा रही है। जाट प्रभावी इस क्षेत्र में इस समय डूडी भी गांवों में इतना अन्तर शायद ही बना पाएं कि अपने शहरी नेताओं की अक्षमताओं को पाट सकें। परिसीमन से पहले ये लोकसभाई उम्मीदवार गांवों से इतनी लीड लेकर चलते थे कि शहरी वोटों की अपनी खास भूमिका नहीं होती थी। पर अब वैसा कुछ नहीं है, न वैसी
लीड और न ही वैसा करिश्मा। ऊंट (परिणाम) अपनी
करवट खुद ही तय करेगा और इसका पता सोलह मई को ही लगेगा।
7 अप्रेल,
2014
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