Saturday, April 26, 2014

जैसा समाज वैसे ही उसके अगुआ

यह माना जाता है कि विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व देने वाले लोग समाज का आईना होते हैं। यानी जैसा समाज वैसे नेता, यह धारणा क्या शत-प्रतिशत सही है? आजादी बाद के देश को देखें तो यह बात सिद्ध नहीं होती है। नेतृत्व देने वाले लोग कुल आबादी के लगभग उन बीस प्रतिशत लोगों की ही प्रतिच्छाया हैं जो समर्थ-सबल हैं और समृद्ध हैं। शेष अस्सी प्रतिशत आबादी का अस्तित्व तो है पर प्रभावी नहीं है, आबादी का यह बड़ा हिस्सा और इनका वोट भी उन बीस प्रतिशत के प्रभाव में देखे जाते हैं।
नई लोकसभा के लिए कई चरणों में चुनाव हो रहे हैं, इन चुनावों में कालाधन बड़ी मात्रा में इधर-उधर होता है। जिन नेताओं और पार्टियों से खोटे धंधे करने वाले कृतार्थ हुए होते हैं, आगे भी वे वैसे ही उनके काम आएं इसलिए ऐसे मौकों पर धन पहुंचाते हैं। नेता-पार्टियां इस धन को प्रचार माध्यम में खर्च के अलावा वोटर को प्रभावित करने के लिए प्रलोभन भी विभिन्न रूपों में देते हैं। पार्टियों और नेताओं के पास जमा और चन्दे के रूप में मिलने वाले इस कालेधन का एक बड़ा जरीया आजकल मीडिया भी हो गया है। पेड न्यूज पर कड़ी निगरानी के साथ रोक है, पर बड़ी सफाई से रास्ते निकाल लिए जाते हैं। इन चुनावों में कालेधन को लेकर किस्से बहुत हैं तो आरोप-प्रत्यारोप में भाषा की दरिद्रता और समझ की कम गहराई भी खूब सुनने को मिल रही है।
विभिन्न क्षेत्रीय नेताओं के कहे की बात भी करें तो विभिन्न पार्टियों के तथाकथित दिग्गजों का अनर्गल प्रलाप ज्यादा सोचनीय है। कांग्रेस की ओर से अघोषित पीएम इन वेटिंग और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी अकसर बचकानी बात करते देखे-सुने जाते हैं। दागी नेताओं को चुनाव लडऩे से रोकने के उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ खुद उनकी पार्टी की सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को पत्रकारों के सामने बकवास बताकर प्रतीकात्मक रूप से फाडऩा 'हीरोगिरी' में नहीं आता है। उन्होंने अपनी इस करतूत के लिए खेद भी प्रकट नहीं किया। आए दिन की उनकी अपरिपक्व तरतीबहीन बातें चर्चा का अलग कारण बनती हैं। वहीं उन्हीं की पार्टी के सलमान खुर्शीद क्या बोलते हैं उसकी प्रतिध्वनि का एहसास खुद उन्हें नहीं होता है।
भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी का परिदृश्य ज्यादा हास्यास्पद इसलिए भी है कि उनकी पार्टी के शीर्ष नेता ही अकसर ऐसा कुछ कहते और करते रहते हैं कि जिसे उगलते बनता है और ही निगलते। पार्टी के घोषित पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी इसमें सबसे आगे हैं। अलग-अलग जगह दिए गए उनके भाषणों और साक्षात्कारों में कहे के मकसदों में रात-दिन का अन्तर होता है, बल्कि जो तथ्य और आंकड़े वे देते हैं उनकी विश्वसनीयता की धज्जियां खिल्ली उडऩे लगती है। टीवी चैनलों और अखबारों में बहुप्रचारित साक्षात्कारों का पहले से तयशुदा होना यानी फिक्स माना जाने लगा है। मोदी खुले सवाल जवाब की चुनौती तो देते हैं पर उस पर अमल नहीं करते। ऐसे ही उनकी पार्टी में हाल में आए सुब्रमण्यम स्वामी हैं, जिनके बारे में यह धारणा है कि पिछले तीन दशकों में उन्होंने जो भी कहा या आरोप लगाए हैं उनमें से आज तक किसी एक की भी पुष्टि वह नहीं कर सके हैं। ऐसा-सा मामला समाजवादी पार्टी के मंत्री आजम खान का है, वह बात को इस तरह कहते हैं कि विवाद भी हो तो हो जाए।
राजनीतिक लपा-लप्पी में शोशेबाजी का स्थान वैसे हमेशा रहा है, पर गिरावट इस कदर जायेगी यह पहलू चिन्ताजनक है। बात जिस तरह शुरू की वहीं लौटें तो यह पुष्ट होता है कि ये नेता और समाज का प्रभावी वर्ग एक-दूसरे की प्रतिच्छाया की भूमिका में है, समाज का प्रभावी वर्ग जैसा और जिस तरह से करता कहता देखा जाता है वैसे ही करते-कहते इन नेताओं को भी देख सकते हैं। अब तो नेताओं की ही क्यों कहें, तथाकथित धर्मगुरुओं की भी वैसी ही करतूतों में लिप्तता की बातें छन-छन कर आने लगी है, अब तो जब तब ये करतूतें करते और अनर्गल कहते धरे भी जाते हैं।

26 अप्रेल, 2014

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