Tuesday, April 15, 2014

बीकानेर के अब तक के सांसद : काम के न काज के-तीन

उन्नीस सौ सतहत्तर में जनता पार्टी गठन और उसकी बनी सरकार को आलोचकों ने भानुमती का कुनबा कहा था। जनता लहर के साथ आए ज्वार में जैसे ये सब आन जुड़े वैसे ही 1979 आते-आते लौटते भाटे में बिखरने भी शुरू हो गये। नतीजतन, जिन वोटरों ने कांग्रेस को 1977 में किनारे किया उसी को 1977 की जनता पार्टी की 295 सीटों के मुकाबले 353 सीटों के साथ सरकार सौंप दी। इंदिरा गांधी ने अपने पिछले कार्यकाल को सबक के रूप में लिया और सावचेती से सरकार चलाई। कई वर्षों से पंजाब में चल रहे आतंकवाद से वह देश को छुटकारा दिलाने की हड़बड़ी में ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के तहत अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सेना भेजने की वह ऐतिहासिक भूल कर बैठीं। चन्द्रशेखर के अलावा सभी राजनेता और राजनीतिक पार्टियां उनके साथ थी। भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी से तो खुद इन्दिरा गांधी ने सहमति ली। नतीजे में इन्दिरा को अपने प्राणों की कुर्बानी और देश को सिखों के मन में आई अलगाव की दीवार भुगतनी पड़ी।
खैर, 1980 के चुनावों में बीकानेर से कांग्रेस ने क्षेत्र के पानी इलाके से मनफूलसिंह भादू को उतारा, जाट थे और कांग्रेस की हवा में जीत गये। सामने जनता पार्टियों के सत्यनारायण पारीक और सीटिंग सांसद चौधरी हरिराम थे। मनफूलसिंह के नाम से क्षेत्र के उत्तरी हिस्से के लोग तो परिचित थे, पर पश्चिमी क्षेत्र के लोग अनभिज्ञ थे। तब इस क्षेत्र की बनावट ऐसी थी कि जो प्रत्याशी गांवों से अन्तर लेकर आता उस अन्तर को शहरी क्षेत्र के वोटों से पाटना आसान नहीं था। परिसीमन के बाद स्थितियों में बदलाव आया है। मनफूलसिंह बीकानेर के लिए डॉ. करणीसिंह और चौधरी हरिराम से बेहतर साबित नहीं हुए। राजनीति वे भी स्टेटस सिम्बल के लिए करते थे। जनता पार्टी से जनता की ऊब से उन्हें ये स्टेटस मिल भी गया। अभी जैसे विधायक सिद्धीकुमारी जीतने के बाद जनता से कोई लेना-देना नहीं रखती वैसा मामला सांसद मनफूलसिंह का था। इन्दिरा हत्याकांड के बाद 1984 में करवाए गए मध्यावधि चुनावों में सहानुभूति लहर के चलते दूसरी बार और 1991 के चुनावों में तीसरी बार मनफूलसिंह चुनाव जीतते गए। मनफूलसिंह का इस क्षेत्र से लगाव होता, कोई दृष्टि होती तो वे बहुत कुछ सही काफी कुछ इसलिए करवा सकते थे कि उनके तीनों सांसदी काल में सरकार उनकी पार्टी कांग्रेस की ही थी, पर कुछ नहीं करवाया। बीकानेर क्षेत्र के साथ आजादी बाद से ही ऐसा होता रहा है।
उन्नीस सौ नवासी में विश्वनाथप्रतापसिंह कांग्रेस से बगावत करके जनता में हीरो बने। चुनाव हुए तो जनता पार्टी से बने घटक जनता दल के यहां मक्खन जोशी आदि प्रभावी झंडाबरदार थे, पर ऊपर गठबन्धनी गड्ड-मड्ड ऐसा हुआ कि माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के पूर्व सांसद और समर्थ चौधरी हरिराम के बेटे बीकानेर से उम्मीदवारी ले आए। वीपी सिंह के 'बलिदान' के समर्थन से जीत भी गए। भानुमती के कुनबे की मानिंद सरकार भी बन गई। जनता पार्टी के विरासतियों ने 1977-79 से कोई सबक नहीं लिया-वामपंथी सरकार में शामिल नहीं हुए। चौधरी देवीलाल अपनी चौधर अलग से तो चन्द्रशेखर अपना अहं अलग चलाते रहे। फिर टूट हुई, सरकार गिर गई। चन्द्रशेखर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस ने अवसर देखकर टांग खींच ली, सरकार गिर गई, इस रोळ-गदोळ में अपने सांसद श्योपतसिंह सरकार को बाहर से समर्थन देने के बावजूद इस क्षेत्र के लिए कोई कूवत नहीं दिखा पाए। कह सकते हैं, कूवत या मंशा उनमें भी नहीं थी। जनता कुनबे के बिखराव से हताश थी, चुनाव अभियान के दौरान राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति ऐसे कारण बने कि कांग्रेस ने बिना नेहरू-गांधी परिवार के ही 1991-92 के चुनावों में नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्व में 232 के अधूरे बहुमत और बाहरी समर्थन से पूरे पांच साल सरकार चलाई। 1984 में दो सांसदों से शुरू भारतीय जनता पार्टी ने 1989 में 85 और 1991-92 के चुनावों में 120 सीटें लेकर अपनी सम्मानजनक स्थिति बना ली थी। राव की सरकार पूरे समय रही पर क्षेत्र का तीसरी बार प्रतिनिधित्व कर रहे हमारे सांसद मनफूलसिंह भादू 'मिट्टी के माधो' से ज्यादा साबित नहीं हुए। 1996 में हुए ग्यारहवें लोकसभा चुनावों में क्षेत्र के प्रभावी नेता देवीसिंह भाटी भाजपा से अपने बेटे युवा महेन्द्रसिंह की उम्मीदवारी ले आए। कांग्रेस ने लगभग नाकारा साबित हुए मनफूलसिंह को ही मैदान में उतारा। क्रमश:

15 अप्रेल, 2014

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