Wednesday, February 26, 2014

राजनाथ उवाच के मायने

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह के पिछले उल्लेखों में इस बात का जिक्र किया गया था कि सिंह इससे पहले के अपने अध्यक्षी काल को एक सबक के रूप में ले रहे हैं और इस कार्यकाल को पिछले से उलट देखने की भरसक कोशिश में लगे हैं। वह हर हाल में केन्द्र में आगामी सरकार केवल राजग की देखना चाहते हैं बल्कि अब तो अकेले भाजपा के बूते सरकार बनाने की कवायद में भी लग गये हैं। यदि वह सचमुच ऐसा सम्भव कर दिखाते हैं तो केवल भाजपा बल्कि जनसंघ के परिप्रेक्ष्य में भी अपने को ऐतिहासिक अध्यक्ष होना दर्ज करवा लेंगे।
इसके लिए उन्होंने राजनीतिक जीवन का ऐसा कड़ा फैसला लेने में भी संकोच नहीं किया जिसमें लालकृष्ण आडवाणी जैसे सक्रिय सर्वोच्च दिग्गज नेता को भी नजरअन्दाज कर दिया। इसीलिए कल तब आश्चर्य नहीं हुआ जब राजनाथसिंह ने एक तरह से पूरे देश के मुसलिम समुदाय के आगे लगभग 'सरेण्डर' कर दिया और यहां तक कह दिया कि हम शीश झुका कर आपसे माफी मांगेंगे। ऐसा कहते हुए राजनाथसिंह के जेहन में क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से पिछले अस्सी सालों से सतत दी जा रही वह अनौपचारिक सीख नहीं थी जिसमें भारतीय सनातन चेतना के उलट दूसरे धार्मिक समुदायों के प्रति द्वेष और घृणा रोपित की जाती रही है।
राजनीति अब पूरी तरह एक प्रोफेशन हो गया है और राजनाथसिंह एक कार्यकारी मुखिया के रूप में पार्टी की मनान्तरित छवि बनाने की जुगत में लगे हैं। लेकिन संघ से शिक्षित निष्ठावानों का मन बदलने की इच्छा भी वह रखते हैं क्या? शायद नहीं। ऐसा करना उनके बस में भी नहीं है। क्योंकि संघ का संचालन आज भी उसी संकीर्ण उच्चवर्गीय पुरुष मानसिकता से हो रहा है जिसके चलते उसने अपनी अलग पहचान बनायी। यदि उस सीख में थोड़ी छूट भी संघ देगा तो उसकी पहचान समाप्त होते देर नहीं लगेगी- इस बात को संघ चलाने वाले अच्छी तरह जानते समझते हैं। एक रणनीति के तहत ही संघ हमेशा अपने को गैर राजनीतिक संगठन के रूप में प्रचारित करता है। राजनीतिक या कहें सामन्ती मानसिकता के पोषण के लिए वह पहले जनसंघ का उपयोग करता था और अब भारतीय जनता पार्टी का। भाजपा को संघ ने 'अलग और साफ सुथरी पार्टी' की दिखाऊ छवि या कहें कांग्रेस की भौंडी कॉपी होने की छूट शासन की अपनी लालसा के चलते ही दी है।
राज कांग्रेस करे या भाजपा, इनकी नीतियां सभी तरह के समर्थों और सबलों का पोषण करने की हैं। समाज के सभी तरह के कमजोर जिनमें स्त्रियां, गरीब, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक आते हैं, उन्हें केवल अपने बूते ही या तो समर्थ और सबल बनना होगा अथवा पीडि़त-शोषित बने रहने के लिए मजबूर होना होगा। वे अपने वोट का असल मानी नहीं समझेंगे एवं उसकी ताकत को नहीं पहचानेंगे और छोटे-मोटे डर, प्रलोभनों और प्रभाव में आकर वोट कास्ट करते रहेंगे तब तक उनका जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। क्योंकि गलत व्यक्ति को दिया गया आपका वोट या उसका उपयोग करना भी हक और ताकत को समझना ही है। वोट की ताकत संख्याबल में है। यह ताकत आज भी देश में स्त्रियों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के पास ही है।

26 फरवरी, 2014

2 comments:

maitreyee said...

बहुत बहुत अच्छा....

maitreyee said...

बहुत बहुत अच्छा....