Thursday, February 6, 2014

आज बात अल्पसंख्यक पर

पिछले कुछ दिनों से एक शब्दअल्पसंख्यककी बड़ी चर्चा है। आस्था की जैनविधि को मानने वाले समुदाय के धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक दर्जे की पुष्टि केन्द्र सरकार ने पिछले माह ही की है। तब से इस मुद्दे पर चर्चा एक बार फिर शुरू हो गई। पाठकों को जानकारी के लिए बता दें कि देश में इससे पूर्व केवल पांच धार्मिक समुदायों को ही यह दर्जा हासिल है--मुसलिम, ईसाई, पारसी, बौद्ध और सिख।
जैन समुदाय के तेरापंथ धर्मसंघ के बीकानेर में आयोजित 150वें मर्यादा महोत्सव पर अतिथि के रूप में आये भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरलीमनोहर जोशी ने इस आयोजन में ही जैनियों के अल्पसंख्यक होने पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। उन्होंने केवल जैनियों को मिले इस दर्जे पर अपनी असहमति जाहिर की बल्कि उनका मानना है कि इस देश में रह कर कमा-खाने वाला अल्पसंख्यक हो ही नहीं सकता। यानी जोशी के हिसाब से इस देश का कोई भी नागरिक अल्पसंख्यक नहीं है। इस पर तेरापंथ धर्मसंघ के अधिष्ठाता आचार्य महाश्रमण ने कहा बताते हैं कि भारतीय संविधान से अल्पसंख्यक के प्रावधान को ही हटा दिया जाना चाहिए। आचार्य महाश्रमण की प्रतिक्रिया का भाव सकारात्मक है या नकारात्मक, इसे वे खुद ही स्पष्ट कर सकते हैं। मानना यही चाहिए कि वे अपनी आदर्शतम मानवीय आकांक्षा को ही अभिव्यक्त कर रहे थे कि काश! समाज ऐसा हो जाये कि कैसे भी दर्जे की जरूरत ही हो। हां, इतना जरूर मालूम है कि इस दर्जे को पाने के लिए लम्बे समय से भिन्न-भिन्न जैन धाराओं के कई मौजिज अपने-अपने कारणों से व्यवस्थित रूप से जुटे हुए थे।
मुरलीमनोहर जोशी राजनेता हैं, और यही उनका पेशा है। जिस ब्राण्ड की राजनीति वे करते रहे हैं उसमें उन्हें यही कहना था, अन्यथा उन्हें अपनी ब्रांड बदलनी होती। सामाजिक-राजनीतिक इतिहास का मानवीय दृष्टिकोण से अध्ययन और उनका मनोवैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण राजनेताओं के आचार-व्यवहार में दुर्लभ होता जा रहा है बल्कि कहें कि मुरलीमनोहर जोशी जिस ब्रांड की राजनीति करते रहे हैं उनमें कभी ऐसा था भी नहीं।
मनुष्य ने धर्म और आस्था के क्रिया-कलापों की शुरुआत अपनी अक्षमताओं को आड़ देने के लिए संभवत: की हो। और जैसा इन क्रिया-कलापों का चरित्र होता है उनमें इनका रूढ़ियों में परिवर्तित होना जरूरी हो जाता है। मनुष्य के अपने को सही और श्रेष्ठ मानने की मानसिकता, दूसरे मनुष्यों से और बड़े रूप में दूसरे समुदाय से खुद के समुदाय को सही मानने की धारणा आपसी भेदभाव और वैमनस्य का कारण बनती है। संख्या का आधार किसी समूहविशेष में अति आत्मविश्वास की वजह बनता है तो इससे उलट संख्याबल में कम होने की स्थिति में असुरक्षा का भाव पनपता है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रख कर आजादी के समय के नेताओं ने गहन विचार-विमर्श के बाद ऐसे प्रावधान संविधान में किए थे। उन नेताओं में अधिकांश की सोच का आधार मानवीय था। दुर्भाग्य से आज वह आधार लगातार कम से कमतर हो गया और संकीर्णता और स्वार्थपरता हावी होती गई। व्यापक लोकहित के माने जाने वाले अधिकांश निर्णयों के पीछे व्यापक और दूरगामी मानवीय सोच अब नहीं देखी जाती।
मुसलिम, ईसाई और पारसी समुदायों का अल्पसंख्यक का दर्जा तो जायज है। विचार तो यह होना चाहिए था कि भारतीय भू-भाग की सनातनता से प्रसूत विभिन्न धाराओं यथा सिख और बौद्धों का अल्पसंख्यक दर्जा रखना है या नहीं बजाय इसके ऐसे जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया गया। वहीं दूसरी ओर जैन समुदाय को जब तब बहुसंख्यकों से भय और हिंसा का शिकार होने और 1984 में ऐसी ही हिंसा के शिकार हुए सिखों जैसी घटनाएं दूसरे पक्ष पर भी विचार करने की जरूरत जताती ही हैं।

6 फरवरी, 2014

1 comment:

Hanvant said...

जैन समुदाय को जब तब बहुसंख्यकों से भय और हिंसा का शिकार

किस सदी में जी रहें है आप?
जैन मात्र एक जाती हैं और यही माना जाता रहा है. हर जाती कि अपनी पूजा पद्दती है और हर जाती का किसी दूसरी जाती के साथ मनमुटाव और झगड़ा होते रहता है. इसका ये मतलब नहीं कि सारे अलग धर्म बन जायें.