Saturday, February 8, 2014

संप्रग, राजग, तीसरा मोर्चा, ‘आप’ और मीडिया

युद्ध और प्रेम में सब जायज है, अंगरेजी की इस कहावत का उल्लेख करें तो कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियां इस जुमले को आप्त-वाक्य मान कर मैदान में उतर गईं हैं। भाजपा चूंकि आक्रामक मुद्रा में है सो वह येन-केन, ऐळ-गेळ सभी तरीकों को बिना किसी शर्म-लाज के अपना रही है। बचाव की मुद्रा में चुकी कांग्रेस को ऐसा कुछ करने का बहुत कुछ सूझ नहीं रहा है। शेष क्षेत्रीय पार्टियां फिलहाल इन दोनों बड़ी पार्टियों के रंग-ढंग देख कर डाफा-चूक सी हैं, हालांकि, ऐसी ग्यारह पार्टियों ने तीसरे फ्रंट की कवायद शुरू कर दी है। ऐसे में मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंहसुरजीतकी बड़ी याद रही है, या बोलचाल की भाषा में कहें तो मीडिया उन्हें बड़ामिसकर रहा है क्योंकि सुरजीत जब तक थे तब जब भी तीसरे मोर्चे की संभावना बनती, सभी संभावित घटक दल सुरजीत के पीछे और मीडिया मुखातिब मुद्रा देखे जाते रहे हैं। तीसरे मोर्चे ने केन्द्र में अपनी तीन बार सरकार बनाई, तीनों ही बार समयकाल का ठप्पा एक वर्ष से ज्यादा का नहीं लगवा पाई। लोकतंत्र में इसे हिकारत से नहीं देखना चाहिए, इस तरह की सभी कवायदों को सकारात्मक तौर पर और लोकतान्त्रिक विकास के विभिन्न पड़ावों के रूप में देखा-समझा जाना चाहिए।
भाजपा की खेचल और इनके पीएम-इन-वेटिंग नरेन्द्र मोदी के रंग-ढंग को देखते हुए लोकतान्त्रिक उम्मीदें तीसरे मोर्चे से ही की जा सकती हैं, चाहे वो कैसे भी हों या कितने दिन ही टिकें। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक देश में चुनावी संभावनाओं पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट बहुमत भाजपानीत राजग को मिलता दीख रहा और कांग्रेसनीत संप्रग को।आपपार्टी ज्यादा से ज्यादा तीसरे मोर्चे के अकेले-अकेले घटक दलों जैसी स्थिति ही हासिल कर सकती है यानी वह पन्द्रह-बीस सीटों से ज्यादा कुछ खास हासिल करते नहीं लगते हैं और यह भी है किसी गठबंधन के सरकार बनाने के लिएआपको मिलने वाली सीटों जितनी जरूरत भी हुई तो वे अपने को जुदा दिखाने के चक्कर में अलग ही खड़ी रहेगी।
मोदी या किसी अन्य के नेतृत्व में राजग सरकार बना पाता है या नहीं लेकिन लोकसभा चुनाव परिणामों तक मोदी इस भाजपा के चूळिए जरूर हिला कर रख देंगे। ऐसे में पार्टी की छवि क्या रहेगी कह नहीं सकते। भाजपा के बैनर पर मोदी द्वारा साम, दाम, दण्ड-भेद जैसी सभी करतूतें अपनाए जाने पर आडवाणी के अलावा भी कुछ नेता असहज महसूस करने लगे हैं। हालांकि, उनमें से अधिकांश तेल और तेल की धार देखने में लगे हैं, कुछ नेता अमूजणी में देखे जा सकते हैं तो शत्रुघ्न सिन्हा के बाद वरुण गांधी जैसे कुछ उगलने भी लगे हैं। मोदी की कोलकाता रैली पर तृणमूल की जो भी प्रतिक्रिया थी वह स्वाभाविक ही थी जिसमें टीएमसी ने मोदी द्वारा गलत आंकड़े देने पर कड़ा एतराज जताया था।
मीडिया मोदी मैनेजरों के कहे-कहे मोदी की कोलकाता रैली के दिन रैली में तीन लाख लोगों के होने की बात करने लगा पर उस दावे की हवा निकलते देर नहीं लगी। खुद भाजपा के वरुण गांधी ने ही सार्वजनिक तौर पर यह कह कर दावे को सबसे पहले पंचर कर दिया कि रैली में चालीस-पचास हजार से ज्यादा लोग नहीं थे। पता नहीं मीडिया में ऐसी रैलियों को कवर करने वालों को प्रशिक्षण में यह बताया जाता है कि नहीं कि सट के खड़े हुओं को दो वर्गफुट और सट के बैठों को तीन वर्गफुट जगह कम से कम चाहिए होती है। संख्या सम्बन्धी दावा करते हुए आयोजन स्थल के कुल वर्गफुट की टोह तो उन्हें ले ही लेनी चाहिए। मीडिया को लोकतंत्र के प्रहरी की अपनी भूमिका को भली-भांति समझना और निभाना चाहिए अन्यथा इन राजनीतिक गठबंधनों की तरह ही उसकी साख भी बट्टे खाते जाने में देर नहीं लगेगी। असलियत को एक समय तक ही ढका जा सकता है, उसे उघाड़ने का काम समय करता ही करता है।

8 फरवरी, 2014

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