इसी पन्द्रह तारीख से नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला शुरू होना है, फाल्गुन लगते ही जैसे होली की तरंग का आभास होने लगता है, वैसे ही इससे सम्बन्धितों में मेले से कुछ माह पूर्व से शुरू होती खदबदाहट और हलचल पूर्व के पन्द्रह दिनों में परवान पर देखी जा सकती है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि बात हिन्दी प्रकाशन के सन्दर्भ में ही की जा रही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने ऐसे अवसरों को और बढ़ा दिया है। नई किताबों, नए लेखकों के साथ प्रकाशन कहलाने वाले पुस्तक व्यवसाय से आकांक्षाएं और सुझावों की ढेरियां लगने लगी हैं। यह आकांक्षाएं और सुझाव ऊपरी तौर पर सद्इच्छाएं लगती हैं पर राग को गुनें तो असल सुर समझते देर नहीं लगती।
आजादी बाद के इन पैंसठ-छियासठ सालों में प्रत्येक क्षेत्र और विधा में उल्लेखनीय या अकल्पनीय परिवर्तन हुए हैं। साहित्य सहित विभिन्न कलारूपों की पड़ताल करें तो सर्जनात्मकता
में युगान्तरी बदलाव आए हैं। व्यवसाय और उद्योगों का चेहरा और चाल-चलन सभी कुछ बदल गया है। मूल्यों की बेमानी होती उम्मीदों में प्रोफेशनलिज्म भी लगभग गायब हो गया है। पुस्तक भी वस्तु और ‘माल’ हो गई है। बिकती पहले भी निश्चित दर पर थी लेकिन अब इसकी कूंत का आधार दर नहीं उसे खरीदने पर हासिल ऊपरी धन भर रह गया है। सरकारी खरीदों में होने वाली अन्य सभी धांधलियां पुस्तक व्यवसाय में भी चरम पर देखी जा सकती हैं। हार्ड बाउण्ड पुस्तकों की कीमत पहले कभी लागत का पांच गुना इसलिए रखी जाती थी कि बिल में बीस प्रतिशत छूट, पन्द्रह प्रतिशत पुस्तक विक्रेता का मुनाफा, दस-पन्द्रह प्रतिशत लेखक की रायल्टी और प्रकाशक का ठीक-ठाक मुनाफा रह सके। अब सरकारी खरीदों में ऊपर-नीचे के लेन-देन सहित यह पैंसठ से पचहत्तर प्रतिशत तक पहुंच गया। यह प्रतिशत और ऊपर नहीं चढ़ेगा इसकी गारंटी इसलिए नहीं कि इसी अनुपात में पुस्तकों पर छपे मूल्यों के मानक तय नहीं हैं। छपे मूल्य लागत से बजाय पांच गुना के दस गुना तक पहुंच गये हैं, कीमत की यह बढ़ोतरी रुक जायेगी, लगता नहीं है।
अब कुछ लेखक चाहते हैं कि प्रकाशकों को हार्ड बाउण्ड के साथ-साथ ही कम मूल्य के पेपरबैक संस्करण प्रकाशित कर देने चाहिएं ताकि पाठक व्यक्तिश: उन्हें खरीद सके। पहले तो वे यह बताएं कि ये पाठक है कहां? हैं तो भी किसी पुस्तक की सौ-दो सौ प्रतियां भी साल में बिक सकेंगी? कुछेक अपवाद गिनवाए जा सकते हैं पर अपवादों के आधार पर कुछ तय नहीं होता। वे कुछ पुस्तकें जो किसी न किसी पाठ्यक्रम में लगी हैं या अति लोकप्रिय हो चुके प्रेमचन्द और उनके समकक्ष से साहित्यकारों के अलावा लगभग पचास करोड़ के हिन्दीभाषी देश में एक वर्ष में किसी पुस्तक की हजार प्रतियां भी बिकती हैं क्या? प्रेमचन्द या उनके समकक्ष से किन्हीं अन्य लोकप्रिय लेखक के साहित्य की बिक्री आसान इसलिए हो जाती है कि साहित्य में थोड़ी रुचि रखने वाला खरीद-फरोख्त कर लेता है या इन मेले-मगरियों में यूं ही जाने वाले को लगता है यहां आए हैं कुछ तो खरीदें। ऐेसे में ऐसी किताबों के खरीदने के निर्णय में आसानी रहती है क्योंकि नये को टटोलने की माथा-पच्ची को वो अपने बस की बात नहीं समझते।
देश की आजादी के बाद का सामाजिक और वाणिज्यक विकास मूल्य आधारित नहीं रहा। जिसे भी अवसर मिला वह भ्रष्ट होता गया। जो थोड़े-बहुत भ्रष्ट नहीं होते या हो पाते हैं उनकी बात यहां नहीं की जा रही है। खड़ी बोली से हिन्दीभाषा का विकास आजादी से पहले हो लिया था अन्यथा बाद में किसके पास अवकाश है। साहित्य में नये परिवर्तनों को अपनी भावभूमि का हिस्सा बनाने का अवकाश अब अधिकांश के पास नहीं रहा। सर्जकों के एक समूह द्वारा नवाचार सम्भव करके गुणात्मक विकास संभव कर लिया गया पर उसी अनुपात में पाठकों की ग्राह्यता का विकास नहीं हो रहा, हो भी रहा तो बहुत छोटे-से समूह में थोड़े दिनों में उनकी भी प्राथमिकताएं
बदल जाती हैं। सृजन में जो गुणात्मक बदलाव आएं हैं उनको प्रचारित और पोषण देने का जो काम आजादी-पूर्व से बीसवीं सदी के सातवें-आठवें दशक तक मीडिया करता आया था, उसने अपना रास्ता एकदम बदल कर धनाधारित बना लिया। सर्जक कभी इस पर भी विचार करेंगे कि उनके सृजन के साथ-साथ रसिक समूह विकसित क्यों नहीं हो रहे हैं।
रही बात लेखकों की तो भाई खुद आप में एक-दूसरे लेखक के प्रति छुआछूत और द्वेष का भाव इतना प्रबल है कि एक दूसरे को अन्यथा या अवसर विशेष पर उल्लेखनीय भले ही कह लें पर पढ़ना नहीं चाहेंगे और खरीद कर पढ़ना हो तो हरगिज नहीं। लेखकों के अपने-अपने घेरे हैं और उन घेरों के या अपने-अपने मित्रों के साहित्य को ही प्रमोट करेंगे, चाहे खरीद करके करें या चाहें उन पर चर्चा करके।
कुछ लेखक प्रकाशक हो लिए हैं, ऐसों को मित्रतावश और भलमनसाहत में कुछ समर्थन और सहयोग भी मिल जाता है। शुरू में उत्साही होकर मित्र कुछ पुस्तकें बिकवा भी देते होंगे लेकिन क्या बिना पाठकों के इस व्यवसाय को चलाया जा सकेगा? ऐसे में कुछ मित्रों की उम्मीदें यदि पूरी नहीं होंगी तो छिटकते भी जाएंगे। कालेजों, विश्वविद्यालयों की खरीद के और भी बुरे हाल हैं। अधिकांश प्राध्यापकों के पास वर्तमान में लिखे जा रहे को पढ़ना छोड़, देखने का भी अवकाश नहीं है। वे मित्र जो प्रकाशन व्यवसाय से ऊंची या मूल्यगत उम्मीदें कर रहे हैं, उनसे गुजारिश है कि इस की असलियत को समझें। रोमांटिसिज्म
अधिकांशत: निराश ही करता है। उन लेखकों से भी जो खुद तो मूल्य आधारित या मूल्य-ढोंग का जीवन जीना चाहते हैं लेकिन समाज के साथ प्रकाशकों के मूल्यहीन होने को नजरअंदाज करने या इस बिना पर छूट देने कि उनके साथ तो खरे बने रहें अलावा इसके जो भी मूल्यहीन आप करना चाहें करते रहें! ऐसा ‘भोलापन’ उस कबूतर जैसा ही है जो बिल्ली को देखकर इस उम्मीद में आंखें बन्द लेता है कि बिल्ली उसे नहीं देख पायेगी। काश ये लेखक उस कबूतर की तरह सचमुच भोले होते!
मूल्यहीनता की बिल्ली में मनान्तरित होते इस समाज के ये सृजक इस बदलते माहौल में अपनी संवेदना को कब तक बचा पाएंगे और यह भी कि ऐसे में इन सृजकों के लिए ‘अभयारण्य’ जैसी व्यवस्था जरूरत नहीं हो जायेगी और उनके सृजन को ‘अजायबघर’ का अजूबा बनने की। प्रकाशन व्यवसाय में लगे धन्धेबाज किताब नहीं बेच पाएंगे या सरकारी खरीदें बन्द गई तो कोई अन्य ‘माल’ बेच कर धनार्जन कर लेंगे, सभी व्यवसाय उद्देश्यपूर्ण रह ही कहां गये हैं।
13
फरवरी, 2014
3 comments:
Sachchee baat. Deep ji sach ko Sadhuwad.
साहित्य पर यह साया बाजार की देन है।
दीप जी, आपकी बातें सही हैं, लेकिन अंशत:. मेरा मानना है कि हिंदी में पाठक है, प्रकाशक को अलबत्ता उसकी परवाह नहीं है. वो तो सरकारी खरीद से संतुष्ट है. आप 100 पेज की किताब चार सौ रुपये में बेचना चाहें तो कौन खरीदेगा? दूसरी बात, क्या कोई प्रकाशक किताब के प्रचार-प्रसार में तनिक भी रुचि लेता है? किताब छाप दी और बस, हो गया काम! प्रकाशक का दायित्व नहीं है कि वो पाठक तक पहुंचे? आपने जो लिखा है वो प्रकाशक का नज़रिया है, मैं पाठक की तरफ से यह कह रहा हूं.
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