सामाजिक अनुकूलन में मर्यादा की बड़ी महत्ता है। वृहत हिन्दी कोश में इस शब्द के जो मानी मिलते हैं, वह क्रमश: इस प्रकार हैं-सीमा, नदी या समुद्र का किनारा, अवधि, सीमा का चिह्न, न्यायपथ में स्थिति, सदाचार, शास्त्र और परम्परा आदि द्वारा निर्धारित आचार की सीमा, प्रतिष्ठा और समझौता। आम बोलचाल में मर्यादित चेतावनी के रूप में अकसर सुना जाता है कि ‘आप अपनी मर्यादा में रहें।’ यह बताने की वैसे तो कोई जरूरत नहीं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी है इसीलिए सभी के बीच अनायास यह समझौता लागू हो जाता कि तुम्हें किस तरह रहना है और मुझे किस तरह। मानो मनुष्य का अस्तित्व अनायास हुए इन समझौते या कहें मर्यादाओं पर टिका है। मर्यादाएं न हो तो अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। बहुत बारीकी से देखें तो इस चर-अचर जगत में जीव और अजीव सभी मर्यादाओं के चलते ही अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। चूंकि मनुष्य और थोड़े बहुत जीव-जगत के अलावा शेष को इन मर्यादाओं का भान नहीं होता, इसीलिए मनुष्य के अलावा कई जीव और वनस्पति जगत की कई प्रजातियों के लुप्त होने के प्रमाण शोधार्थियों को जब तब मिलते रहते हैं।
वनस्पति हो या जीव-जन्तु, प्रकृति में उनकी मर्यादाएं स्थान, जलवायु और मौसम अनुसार तय हुई हैं। इसीलिए सभी तरह के पेड़-पौधे सब जगह नहीं पनप सकते और सभी तरह के जीव सभी जगह अपना जीवन नहीं बचा पाते। मनुष्य अपने विवेक से या सम्पन्न हुआ तो साधन जुटाकर और दबंग हुआ तो धाक जमा कर अपनी मर्यादाओं का विस्तार कर लेता है। एक की मर्यादा का विस्तार अन्य की मर्यादा को सीमित कर देता है। आज के इस युग में अपनी-अपनी मर्यादा के विस्तार की होड़ मची है। जो जिस तरह से संभव होता है उसी तरह से अपनी मर्यादा को विस्तार देने की कोशिश में लगा है। यह होड़ मनुष्य के अस्तित्व के लिए खतरा है। मानवीयता पर आए इस आसन्न खतरे से बचाव हेतु त्वरित प्रयास की उम्मीद किसी सत्तारूप से करना बेमानी है क्योंकि सत्तारूपों का चरित्र मर्यादा विस्तार पर टिका होता है फिर वह चाहे राजसत्ता हो, धनसत्ता हो, बाहुबल सत्ता हो या फिर धर्मसत्ता। उम्मीदें विवेकवानों से की जा सकती हैं पर वे शालीन चुप्पी साध लेते हैं और शातिर विवेक का दुरुपयोग कर सत्तारूपों में रूपान्तरित हो लेते हैं।
मर्यादा विस्तार की यह मानसिकता अमर्यादित होते ठिठकती भी नहीं। अस्तित्व बनाये रखने की कारक मर्यादा सत्तारूपों के प्रभाव में सबलों की पोषक और निर्बल की शोषक हो लेती है। इसीलिए यह सावचेती जरूरी है कि अस्तित्व की कारक मर्यादाएं होड़ा-होड़ी में कहीं उलट भूमिका अदा न करने लगे?
1 comment:
बिल्कुल सही!!
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