Thursday, January 30, 2014

गांधी का स्मरण

मोहनदास करमचन्द गांधी की आज पुण्यतिथि है, आज के दिन हिन्दू कट्टरवादियों के नुमाइंदों ने उनकी शरीरी सक्रियता को शान्त कर दिया। तब से लेकर अब भी नाथूराम गोडसे की सनक के वारिस लगातार गांधी की मानस सक्रियता को मिटाने की असफल कोशिश करते रहे हैं। इन कट्टरवादियों के दुस्साहस को रेखांकित इसलिए किया जाता है कि बावजूद उनके कुप्रयासों के मानस गांधी केवल विराट हुआ है बल्कि उनकी आभा-परगा विश्वव्यापी होती गई। गोडसे सनक के तमाम वारिस और संगठन अपने दोगलेपन के चलते जहां एक ओर गांधी के बारे में अनर्गल विषवमन में लगे रहते हैं वहीं स्वार्थपूर्ति के लिए गांधी का नाम लेने में संकोच भी नहीं करते।
व्यापक मानवीय सोच रखने वाले दुनिया के तमाम लोग मानवीयता हीन होते जा रहे इस युग को बचाए रखने के लिए गांधी की मानस सक्रियता में ही उम्मीद देखते हैं। दुनिया के तमाम संकट और समस्याओं का मानवीय समाधान गांधी के सुझाए उपायों में पाया जा सकता है। इन उपायों से ही मानवीयता का अस्तित्व बना रह सकता है। शेष सभी प्रतिस्पर्धी उपायों में किसी किसी मूल्य का हनन अवश्यम्भावी है। अभी हम घोर प्रतिस्पर्धी युग में रहने को मजबूर हैं। गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अपनी सोच को इस तरह की व्यापकता दें कि चर और अचर जगत में कोई भी वंचित और पीड़ित हो। ऐसी सोच को साधना मुश्किल जरूर है असम्भव नहीं। गांधी ने इसे साध कर बताया है। इसीलिए महान् वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने कहा कि आने वाली दुनिया यह अचम्भा करेगी कि गांधी जैसा हाड़मांस का व्यक्ति सचमुच इस दुनिया में हुआ था। गांधी ने जो कहा या लिखा उसे उन्होंने पहले खुद जीया भी। अच्छा हासिल करने के लिए प्रयासों के अच्छा होने की बात गांधी ने की। गांधी की इस बात को गांठ बांध लें तो भ्रष्टाचार सिरे से गायब हो जायेगा।
गांधी के प्रिय भजन की पंक्तियां हैं... जो पीर पराई जाणे रे... पर दुक्खे उपकार करे, मन अभिमान ना आणे रे। इन पंक्तियों से बड़ा कोई आध्यात्मिक प्रवचन भला और क्या हो सकता है? हमारे युग के तमाम धर्मगुरु अपने-अपने संप्रदायों को कोरपोरेट हाउस माफिक चलाने लगे हैं और खुद को महात्मा की जगह महाराजा के रूप में व्यवहार करने और कृष्ण रूप में प्रतिष्ठा पाने को लालायित रहते हैं। उनके सभी ताम-झामों में लाखों-करोड़ों का धन खर्च होता है, खोटे-खरे करके कमाये कालेधन को नैतिक बनाने की कामना में अधिकांश धनी अपने कालेधन का एक हिस्सा इन तथाकथित भगवानों और धर्मगुरुओं की प्रतिष्ठा के लिए खर्च करते हैं, वे भूल जाते हैं कि गलत तरीकों से कमाया धन अच्छे कामों में कैसे कारगर हो सकता है। गांधी के प्रिय भजन की उल्लेखित उक्त पंक्तियों के मर्म पर आज कौनसा तथाकथित धर्मगुरु खरा है? जानते हैं ऐसे कड़वेपन से कुछ कहना मानस गांधी की अवहेलना में आता है। इस सचाई को स्वीकारने में इसीलिए हिचक नहीं है कि गांधीवादी बनना आसान नहीं पर साथ ही साथ फिर दोहराएंगे कि मुमकिन है, खुद गांधी ने इसे साबित किया है।

 30 जनवरी, 2014

1 comment:

maitreyee said...

बहुत बहुत सुंदर ... विशेष रूप से अंत!!!