Wednesday, January 1, 2014

रवीन्द्र रंगमंच : व्यक्तिगत खाज से ज्यादा क्या?

विभिन्न कलाओं साहित्य में रुचि रखनेवालों और पत्रकारों के बीच धरमेले का-सा सम्बन्ध देखा गया है। कह यह भी सकते हैं कि साहित्य और कलाओं से सम्बन्धित कई गाहे-बगाहे पत्रकारिता में भी आवा-जाही करते और हाथ आजमाते देखे जाते हैं। चूंकि साहित्य और कलाओं में आजीविका की गुंजाइश बहुत कम है इसलिए ऐसे लोगों की पत्रकारिता से कोरपोरेट बने इस व्यवसाय में खपने की संभावनाएं लगातार बनी रहती हैं। पिछले बीस वर्षों से बीकानेर के निर्माणाधीन रवीन्द्र रंगमंच से सम्बन्धित कोई भी बात मीडिया में सुर्खी भी शायद इसीलिए पाती रही। कूंची-चाकू से आकृतियां बनाने वाले कलाकारों ने भी अपने इस धरमेले को निभाते हुए कल आम-आवाम का ध्यान इस अधूरे और अभिशप्त रंगमंच की ओर आकर्षित किया। उनके इस अभियान को मीडिया ने पर्याप्त सुर्खी भी दी। इस तरह के अभियानों के बारीक पेंच में एक यह भी होता है कि ऐसे अभियानों को अभिनीत करनेवालों की मंशा मुद्दे को सुर्खी दिलाना होता है या अपने को, समझना मुश्किल है।
उन्नीस साल पहले बीकानेर के मौजिजों और तथाकथित मौजिजों ने इस रंगमंच को पूरा करवाने के लिए अविस्मरणीय मौन जुलूस निकाला था और तत्कालीन जिला कलक्टर से आग्रह किया कि इसे पूरा करवाएं। लगभग तब ही से जब-तब इस मुद्दे को संभागीय आयुक्त, जिला कलक्टर के सामने उठाया जाता रहा है। अभियान से जुड़े लोगों के खट-मीट्ठे अनुभव भी हैं तो कुछ बदमजगियां भी। पिछले बीस वर्षों से यह रंगमंच एक पहेली भी है। इस दौरान इस क्षेत्र के अब तक रहे जनप्रतिनिधियों ने इस मुद्दे को कभी अपनी प्राथमिकता में नहीं लिया। फिर वे चाहें डॉ. बुलाकीदास कल्ला रहे हों या देवीसिंह भाटी या फिर मानिकचन्द सुराना और वीरेन्द्र बेनीवाल ही क्यों हों। जनप्रतिनिधि तो और भी कई रहे हैं पर उक्त चारों तो सरकारों में प्रभावशाली भूमिकाओं में भी रहे हैं। कल्ला की बात तो इसलिए नहीं करते कि उनके बारे में आमतौर से प्रचलित है कि वह नाली बनाने की अनुशंसा भी वहीं तक की करते हैं जहां तक उनका विधानसभाई क्षेत्र होता है। ऐसे में उनके विधानसभा क्षेत्र से लगभग दो किलोमीटर दूर बनने वाले इस रंगमंच को पूर्ण करवाने में रुचि भला वह क्या दिखलाते? कल्ला ने नगर विकास न्यास के मकसूदी काल की सीमाएं भी अपने चुनाव क्षेत्र तक सीमित करवा ली थी। ध्यान में रहे कि बीकानेर का निर्माणाधीन रवीन्द्र रंगमंच नगर विकास न्यास का ही प्रकल्प है और यह भी कि शिलान्यास से लेकर अब तक इसके तीन अध्यक्ष जनप्रतिनिधि रह चुके हैं। बात देवीसिंह भाटी की रही, क्योंकि 2008 तक तो यह मसला उन्हीं के विधानसभा क्षेत्र का था। उन्होंने भी इसे पूरा करवाना जरूरी नहीं समझा। वैसे भाटी ने अपने चुनाव क्षेत्र के लिए अब तक क्या कुछ किया है इसकी कोई फेहरिस्त ध्यान में नहीं आई है। सो दोष इसका उनके मतदाताओं को ही दे सकते हैं कि जो ऐसे उम्मीदवारों को केवल अपने व्यक्तिगत हित साधने को ही वोट देते हैं, सार्वजनिक हितों के लिए नहीं। मानिक सुराना और वीरेन्द्र बेनीवाल चाहे पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी सम्हालते रहे हों पर उन्होंने भी रवीन्द्र रंगमंच को जिले की जरूरत में महसूस किया हो-याद नहीं पड़ता।
आज के इस आलेख का मकसद रंगमंच का सिरदर्द पालनेवालों को यह बताना भर है कि जब कोई जनप्रतिनिधि इसमें रुचि नहीं ले रहा तो इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि आम-आवाम की रुचि भी इसमें नहीं है, अन्यथा यह मुद्दा चुनावी अवश्य बनता। रही बात प्रशासकों की तो उनके लिए स्थानीय मुद्देसमसाण किरा कै आया-गयांरा’-से ज्यादा नहीं होते। कला-साहित्य वालों को खाज है तो वे जब तब अपनी मिटाते रहें, यह उनका व्यक्तिगत मसला ही तो हुआ।

01 जनवरी, 2014

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