‘आज की बात’ के शुरुआत में पाठकों को यह स्मरण कराना जरूरी समझता हूं कि अन्ना आन्दोलन के आरम्भ और ‘आम आदमी पार्टी’ के गठन की मंशा से ‘विनायक’ ने बड़ी उम्मीदें ना बांधी और ना ही बंधवाने की चेष्टा की बल्कि इनके प्रति आशंकाओं और आगाह करने का साझा पाठकों से किया है। पिछले दो दिन से मीडिया और सोशल मीडिया दोनों में केजरीवाल के धरना-कदम की आलोचना छिछालेदर की हद तक होने लगी। यह सब वैसा ही दिखने लगा जैसा क्रिकेट में देशीय टीम की शर्मनाक हार और गौरवशाली विजय के समय प्रतिक्रियाएं
दी जाती हैं। ‘आप’ सरकार के गठन के समय से ही कांग्रेस कुछ संयमित और भाजपा बौखलाहट के साथ उसे भुंडाती रही है। भाजपा की प्रतिक्रियाओं
से लगने लगा है कि उसे अब ‘बिल्ली के भाग्य’ पर ही भरोसा नहीं रहा। वह छींके तक पहुंचने को उस बिल्ली की भूमिका में दिखाई देने लगी जो अपनी क्षमता से ऊपर छलांगें लगाने को तत्पर हो जाती है।
आलोचना करने वाले यह भूल जाते हैं कि हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं और पिछले छियासठ वर्षों की स्वतंत्रता या कहें गणतंत्र होने के इन तिरेसठ वर्षों में शासन और व्यवस्था द्वारा लोकतंत्र और आम आवाम के साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है उसके लिए प्रत्येक नागरिक समान रूप से जिम्मेदार हैं। यदि विवेकहीनता से वोट के अपने अधिकार का प्रयोग करेंगे तो यही सब भुगतने को हमें तैयार भी रहना होगा।
अन्ना ने उम्मीद जगाईं। केजरीवाल और उसमें भरोसा रखने वाले साथियों ने इन उम्मीदों को साकार करने के वास्ते पार्टी बनाई और जैसे ही सक्षम दिखे, मौका मिलते ही जनता ने इन्हें अवसर भी दे दिया। यह पार्टी एक ‘डोळ’ के दोनों प्रमुख दलों (कांग्रेस और भाजपा) का विकल्प देने को बनी है। अब इससे यदि यह उम्मीद की जाय कि राज में यह वैसे ही रम जाए जैसे कांग्रेस और भाजपा रम गई है तो फिर इस पार्टी की जरूरत ही क्या? यह पार्टी केवल इन पार्टियों के विरोध मात्र के लिए नहीं बनी है, वरन् इसने पूरे सिस्टम या शासन-प्रशासन तंत्र को न केवल चुनौती दी बल्कि इसे आम-आवाम के प्रतिकूल भी बताया था। दिल्ली की जनता ने दोनों स्थापित पार्टियों को नकार कर इसमें अपना भरोसा जताया है। 2008 के पिछले चुनाव से भाजपा को साढ़े तीन प्रतिशत वोट कम मिलने के बावजूद उसकी सीटें 2013 में बत्तीस इसलिए हुई कि दिल्ली की सभी सीटों पर मुकाबला इस बार त्रिकोणीय था, भाजपा इस असलियत को चौड़े लानी से कतराती रही है।
‘आप’
पार्टी की सरकार को कोई शिवजी की बरात कह रहा है, तो कोई अराजक और कोई तानाशाह। यह सब रूप इसलिए दिखाई दे रहे हैं चूंकि इसमें शामिल सभी तरह के लोगों में अधिकांश सभी तरह से शिक्षित-दीक्षित नहीं हैं, चतुर-चालाक नहीं हैं। हड़बड़ी में पार्टी बनी। कुछ स्वरूप बनने से पहले ही उत्सुक जनता ने उसे सरकार बनाने को ठेल दिया। ऐसे में ऐसा ही स्वरूप सामने आना था। रही बात सरकार चलाने के उनके नये तौर-तरीकों की तो उनसे यदि वैसी उम्मीदें रखें जैसी सरकारें कांग्रेस और भाजपा वाले चलाते रहे हैं तो फिर इन्हें चुना ही क्यों?
अब चुन लिया है तो उन्हें पर्याप्त समय और मौका भी दिया जाना चाहिए। अपने भीतर झांकें-देखें, उम्र के हर पड़ाव पर कुछ न कुछ हम सीखते ही हैं और यह ठीक-ठाक मंशा वाले ‘आप’ पार्टी के लोग कुछ अनाड़ीपना दिखाते भी हैं तो भी बर्दाश्त करना और भरोसा बनाये रखना चाहिए। गलतियों से सबक नहीं लेंगे तो बाहर होने में पांच साल से ज्यादा समय हरगिज नहीं लगेगा। लोकतांत्रिक
आन्दोलनों और व्यवस्थाओं में असफलता भी सबक देकर जाती है। कांग्रेस और भाजपा को समुद्र के उस जहाज का वहम न पालने दें कि वोटररूपी पक्षी लौट कर उन दोनों में से किसी एक पर ही आकर बैठेगा। ‘आप’ के फट्टे पर भरोसा तब तक बनाये रखें जब तक वह खुद ही न उलट जाय। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी उम्मीदों के फट्टे जुड़कर ही नया जहाज बनाते हैं।
22 जनवरी, 2014
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