Thursday, June 9, 2022

बीकानेर : स्थापना से आजादी तक-6

 इसके बाद बीकानेर भी उद्वेलित हुआ। बाबू मुक्ताप्रसाद की अगुवाई में बीकानेर राज्य प्रजामण्डल की स्थापना हुई और अनेक सामाजिक कार्यों के साथ आजादी को लेकर लोगों को जागृत किया जाने लगा। 4 अक्टूबर 1936 को प्रजामंडल की औपचारिक बैठक हुई जिसमें वैद्य मघाराम प्रधान, लक्ष्मीदास स्वामी मंत्री और भिक्षालाल बोहरा कोषाध्यक्ष चुने गये। बाबू मुक्ताप्रसाद इस वचन के साथ कमेटी से बाहर रहे कि वे बाहर रह कर हर तरह का सहयोग ज्यादा अच्छे से कर पाएंगे।

बावजूद इसके बाबू मुक्ताप्रसाद सहित उक्त चारों के घरों की तलाशी ली गई, चूरू के सेनानियों पर चलाए गए बीकानेर षडयंत्र केस के कागजात मिलने पैरवी करने पर षडयंत्र में शामिल मानकर पांचों को देश निकाला (बीकानेर राज्य से निर्वासित) दिया गया। मुक्ताप्रसाद अलीगढ़, मघाराम तथा लक्ष्मीदास हिसार चले गये। बाद में मघाराम कोलकाता चले गये। बाबू मुक्ताप्रसाद इस निर्वासन के बाद लम्बे समय तक बीकानेर नहीं आये। मघाराम और भिक्षालाल ने वृद्ध परिजनों की तीमारदारी के नाम पर प्रवेश पा लिया। लेकिन इनमें से लक्ष्मीदास स्वामी 'अथक' वीर निकले। दिसम्बर, 1937 में निर्वासन आज्ञा भंग कर विद्रोही के तौर पर बीकानेर में प्रवेश किया। इस पर उनके हाथ-पावों में बेडिय़ां डालकर काल कोठरी में डाल दिया गया। लक्ष्मीदास पर हुए मुकदमें की पैरवी बाबू रघुवरदयाल गोईल ने की, लक्ष्मीदास को बाद में पुलिस हवालात से जुडिशियल हवालात में स्थानांतरित कर दिया। आईजीपी के सामने लक्ष्मीदास ने 'मैं अत्याचारी राज्य के खिलाफ बगावत फैलाना अपना धर्म समझता हूं' जैसा बयान दिया बल्कि भरी अदालत में 'महात्मा गांधी की जय' जैसा नारा भी लगाया। इस पर उन्हें फिर निर्वासित कर दिया गया। इस बार लक्ष्मीदास जोधपुर गये और लोक परिषद् कार्यालय में मंत्री बन कार्यालय संभालने लगे। लक्ष्मीदास वहां से 1940 . के त्रिपुरा कांग्रेस सम्मेलन में गये। वहां यह आह्वान सुनकर कि निर्वासित क्रांतिकारी अपनी-अपनी रियासतों में जाकर काम करेंलक्ष्मीदास बीकानेर गये। बीकानेर आने पर उन्हें छह माह की सजा दी गई। सजा काटने के बाद लक्ष्मीदास अपना सिर ऊंचा रखते हुए यहीं रहे।

1932 . के बीकानेर षड्यंत्र केस और 1937 के व्यापक निर्वासनों के बाद बीकानेर में एकबार शान्ति हो गयी। चूंकि 1938 में महाराजा गंगासिंह के शासन की स्वर्ण जयंती उत्सव तय था। उसके रंग में भंग पड़े, इसलिए शासन ने पुरानी फाइलें खंगालनी यह जानने के लिए शुरू की कि खत्म हो चुके बीकानेर प्रजामण्डल का ऐसा कोई सदस्य गुपचुप तौर पर सक्रिय तो नहीं है। जैतारण के एक युवक सुरेन्द्रकुमार शर्मा रेडार पर लिए जो कोटगेट गणेश मन्दिर के पुजारी अपने मामा लालचंद श्रीमाली के पास रहते थे। सुरेन्द्र शर्मा इससे पूर्व मुम्बई में सक्रिय थे, लेकिन जयनारायण व्यास के कहने पर अपनी जन्मभूमि ननिहाल बीकानेर आकर बीकानेर प्रजामण्डल के सदस्य बन गये। 

सुरेन्द्र शर्मा ने अप्रेल, 1937 में रामलाल आचार्य, गंगादास गज्जाणी, डूंगर कॉलेज के एक विद्यार्थी कन्हैयालाल गोस्वामी और रामगोपाल दुबे को साथ लेकर 'हितवर्धक सेवा सदन' नाम से भंग हो चुके 'बीकानेर प्रजामण्डल' के कामों को पुन: चालू करने का निश्चय किया। अन्य सामाजिक कार्यों के अलावा उनके छिपे ऐजेंडे में स्वर्ण जयंती समारोह में आने वाले वायसराय को काले झण्डे दिखाना भी था। इसके साथ ही 'या तो निर्वासितों को वापस आने दो, वरना रियासत खतरे में है।' यह नारा दीवारों पर छापने के लिए स्टेनसिल तैयार किया। उक्त चार साथियों में रामलाल आचार्य पुलिस के मुखबिर के तौर पर शामिल हुए थे। आचार्य की सूचना पर कोटगेट स्थित फन्ना व्यास की दुकान पर सुरेन्द्रकुमार शर्मा सहित पांचों को गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस की योजना अनुसार रामलाल आचार्य ने सब-कुछ बताते हुए बयान दे दिया और गंगादास गज्जाणी ने भी उसकी ताईद कर दी। इन्होंने ही सुरेन्द्र शर्मा द्वारा अखबारों को भेजे एक लेख के मसौदे की राइटिंग सुरेन्द्र शर्मा की होने की शिनाख्त भी कर दी। 

पुलिस ने सुरेन्द्रकुमार शर्मा को यातनाएं देकर इकबाल करवा लिया। इसके बाद बिना किसी लिखित आदेश के चौबीस घंटे में बीकानेर से चले जाने को कह दिया। सुरेन्द्र शर्मा के बीकानेर छोडऩे के बाद उनकी बीमार मां को बहुत तंग किया गया। इसकी जानकारी मिलने पर शर्मा बीकानेर आये और अपनी बीमार मां को जैतारण ले गये और सेवा करने लगे। इन यातनाओं की जानकारी की वजह से रियासत में आतंक का साया व्याप गया, जो 1942 . तक कायम रहा। लेकिन निर्वासित लोग शान्त बैठने वाले नहीं थे। कोलकाता में निर्वासित जीवन बिता रहे वैद्य मघाराम और लक्ष्मीदास अपनी आजीविका के साथ देश की आजादी को लेकर बेचैन भी थे। श्रीमती लक्ष्मीदेवी आचार्य (धर्मपत्नी श्रीराम आचार्य, जिनकी स्मृति में सिटी कोतवाली के पास स्कूल संचालित है) की अध्यक्षता में दोनों ने बीकानेर प्रजामण्डल की प्रवासी शाखा की स्थापना की, लक्ष्मीदास स्वामी मंत्री बने। लेकिन यह प्रयास इसलिए सिरे नहीं चढ़ा क्योंकि लक्ष्मीदेवी सक्रिय कांग्रेसी भी थी, जिसकी वजह से उन्हें लम्बे समय के लिए जेल जाना पड़ गया।

बीकानेर में आजादी के आन्दोलन का दूसरा दौर 22 जुलाई, 1942 को तब से शुरू हुआ माना जाता है जब बाबू रघुवरदयाल गोईल ने 'प्रजा परिषद्' नाम से संगठन बनाया। बाल्यावस्था में पहले माता और फिर पिता, दोनों का साया गोईल के सिर से उठ गया था, पालन-पोषण दादी ने किया और पिता की तरह वकील बनाया। डॉ. सम्पूर्णानन्द के विद्यार्थी रहे गोयल शहर के उन गिने-चुने लोगों में थे जो बिना गांधी टोपी के कभी नजर नहीं आते। क्रमशः

दीपचंद सांखला

9 जून, 2022

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